Modernity, Globalization और ‘दुनिया एक गांव’ वाली फिलॉस्फी, ये आज की 21वीं सदी की सबसे बेहतर चीजें हैं जिसने दुनिया को जोड़ रखा है। आज संचार—क्रांति का जमाना है तो एक जगह का आइडिया दूसरे जगह असानी से पहुंच रहा हैं, कल्चर, कस्टम, मॉडर्न तकनीक और न जाने क्या—कया आसानी से आपस में दुनिया एक्सचेंज कर रही है। लेकिन ग्लोबलाइजेशन और मॉडर्निटी को लेकर डेवलपिंग नेशन्स के अंदर एक अलग ही सोच देखने को मिलती है, यहां इसका मतलब दुनिया के डेवलप्ड देशों की कॉपी करना हैं, माना कि दुनिया एक गांव के रुप में आज के युग में बन चुकी है। जहां चीजें आदान—प्रदान तो होगीं ही मतलब नई भाषा में एक जगह से दूसरे जगह पर कॉपी और पेस्ट तो होंगी ही, इसी के कारण तो आज के दौर में दुनिया का हर देश प्रगति कर रहा है फिर चाहे कम्प्यूटर हो, मोबाइल हो या कोई और नई तकनीक का क्षेत्र हो। लेकिन कॉपी और पेस्ट के दौर में कई चीजें बिना किसी लॉजिक के भी कई देशों ने कॉपी पेस्ट किया है। भारत में भी कुछ यही हाल है, विकास के अंधे दौड़ में भारत में छोटी से लेकर बड़ी कई चीजें, जिनके कॉपी पेस्ट करने का कोई तुक नहीं बनता है, उसे यहां के लोगों ने नए दौर और मॉडर्निटी की बेंच मार्क मानकर बस अपने में आत्मसात कर लिया है।
ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में कई चीजें जो वेस्टर्न कंट्रीज से भारत आईं, उनके पीछे एक लॉजिक है और जिन्हें अपनाने के पीछे कई सारे अच्छे और वाज़िब कारण भी हैं। लेकिन इसी ग्लोबलाइजेंशन ने कई भारतीय चीजों को अपनी बेकार और बेतुके कारणों के कारण भी रिप्लेस कर दिया है। हालांकि अब इसे पता नहीं रिस्टोर किया जा सकता है कि नहीं, लेकिन आपको ऐसी कुछ चीजों को जानना चाहिए जो वेस्टर्न देशों से हमने अपनाया और जिन्हें अपनाने के पीछे कोई लॉजिक है ही नहीं।

Western World – अब हम नीचे नहीं बल्कि डाइनिंग टेबल पर बैठकर खाना खाते हैं
वेस्टर्न देशों में डाइनिंग टेबल पर बैठ कर खाने की परंपरा है। ग्लोबलाइजेशन के दौर में भारत के लोगों ने इसे भी मॉडर्निटी के सिंबल के रुप में अपनाना शुरू कर दिया और अब लगभग हर घर में एक डायनिंग सेट तो होता ही है। इसी के बीच में एक बड़ी-सी टेबल होती है जिसके चारों ओर कुर्सियां लगी होती हैं जिसपर लोग बैठकर खाना खाते हैं। लेकिन भारत में डाइनिंग टेबल जैसी कोई परंपरा नहीं है, यहां जमीन पर बैठ कर खाना खाने की परंपरा है जो अब कुछ ही घरों तक, ज्यादात्तर गांव के इलाकों और गरीब लोगों के घरों तक सीमित हो कर रह गई है। लेकिन डाइनिंग टेबल पर डिनर करने या खाना खाने का कोई तुक नहीं बनता है न ही इसका कोई लॉजिकल कारण है जिसके लिए हम इंडियन्स को साबाशी मिलनी चाहिए कि हमने इसे अपनाकर अच्छा काम किया। यह हेल्थ के मामले में सही नहीं है।
डाइनिंग टेबल से अच्छा है कि, हम नीचे बैठकर ही खाना खाएं। साइंटिफिक स्टडी बताती है कि, जब हम एक कुर्सी पर बैठते हैं, तो हमारे ग्लूट्स में खिंचाव होता है जो हमारे शरीर को कमजोर करता है। इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि, ज्यादा कुर्सी पर बैठने से डिजीनेरेटिव बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। वहीं दूसरी ओर भारतीय तरीके से जमीन पर बैठ कर खाना खाने से न केवल हमारी पाचन क्रिया में सुधार होता है बल्कि इसमें वजन घटाने में भी मदद मिलती है और शरीर के लचीलेपन में सुधार आता है। क्योंकि इस दौरान हमारे दिमाग का सीधा ध्यान उस खाने पर होता है जो हम खा रहे होते हैं।
Western World की शीशे वाली बिल्डिंग
कुछ साल पहले तक भारत में शीशें की बिल्डिंग्स आम बात नहीं थीं, ज्यादात्तर बड़े घरों में शीशे लगे होते थे। उस दौर में कई सारी कहावतें भी चलीं, जैसे कि :— जिनके घर शीशे के होते हैं वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते, शीशे के घरों में रहने वालों के दिल पत्थर के होते हैं और न जाने क्या—क्या। लेकिन ग्लोबलाइजेशन इफेक्ट हुआ और फिर क्या आम क्या खास… आज के दौर में तो हर घर में शीशा आम सी बात है। कुछ नहीं तो खिड़की में शीशे लगाने की परंपरा तो जोर शोर से शुरू हो ही गई है। वहीं अगर बड़े शहरों और आईटी हब वाली जगहों पर आप जाएंगे तो वहां कि पहचान ही शीशे वाली बिल्डिंग्स से होती है। लेकिन भारत में धड़ल्ले से बन रहीं इन बिल्डिंग्स का भारत में लॉजिक क्या है? असल में शीशे की बिल्डिंग खासतौर पर वेस्टर्न जगहों पर इसलिए बनाई जाती हैं ताकि रुम टेम्परेचर मेंटेन किया जा सके। पश्चिमी देश जहां कि जलवायु मुख्यरुप से ठंडी है वहां पर शीशे इसलिए इस्तेमाल होते हैं ताकि सूरज से जो भी धूप आ रही हे उसे ट्रैप किया जा सकें ताकि रुम टेम्परेचर को नार्मल बनाए रखा जा सके। लेकिन अगर बात भारत की करें तो यहां का जलवायु बिल्कुल अलग है। ऐसे में शीशे की बिल्डिंग में हम एसी और कूलर का यूज करते हैं।

Western World और रैगिंग का कल्चर
रैगिंग, यह नाम सूनते कई लोगों के मन में रुह कंपा देनेवाली यादें ताजी हो जाती हैं, तो कईयों के लिए बहुत से हसीन किस्से रिप्ले हो जाते हैं। आज की डेट में भारत समेत कई देशों में रैगिंग को बैन कर दिया गया है। रैगिंग वो प्रोसेस है जिसमें कॉलेज या स्कूलों में आने वाले नए लड़कों या जूनियर्स के संग सीनियर्स या पुराने स्टूडेंट्स मस्ती मज़ाक करते हैं, लेकिन ज्यादात्तर समय में यह मस्ती सिर्फ मस्ती नहीं होती। हद पार करते हुए कई बार यह टॉर्चर तक पहुंच जाता है। इसलिए आज की डेट में इसे बैंन कर दिया गया और हर स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटीज में एंटी रैगिंग कार्यालय भी बनाए जाते हैं, जो इससे जुड़े केसेज को देखती है।
लेकिन हममें से बहुत लोग इस बात को नहीं जानते कि, भारतीय शिक्षा पद्धिती में ऐसा कुछ एगजिस्ट नहीं करता है। रैगिंग सबसे पहले कुछ यूरोपीय विश्वविद्यालयों में एक लोकप्रिय एक्टिविटी बननी तब शुरू हुई जब सिनियर्स ने कुछ जूनियर्स के संग प्रैक्टिकल जोक्स करने शुरू किए। अंग्रेजों ने भारतीयों संग इसे सोशल हैरारकी के रुप में प्ले करना शुरू किया। यहीं से यह कल्चर भारत की आजादी के बाद भी कॉलेज और यूनिवर्सिटीज में जारी रही।

खाने के लिए कांटा या चम्मच का प्रयोग
आपने वो कहावत तो सुनी होगी ‘अंग्रेज चले गए लेकिन चम्मच ओर अंग्रेजी छोड़ गए’। यह कहावत कई लोग आज भी गांव में चम्मच से खाना खाने वालों के लिए यूज करते हैं। हालांकि इसमें कोई शक नहीं की चम्मच का उपयोग बहुत से कामों में होता है, जैसे ग्रेवी वाली चीजें या खाना निकालने में या फिर चाउमिन जैसी चीजें खाने में। लेकिन भारतीयों में कांटा और चम्मच इस्तेमाल करने की ऐसी लत लग गई है कि अब वे चावल दाल, रोटी—सब्जी, पकौड़े और बहुत कुछ चीजें खाने में भी यूज करते हैं, जहां यूज करने का कोई लॉजिकल कारण नहीं है।
बदलते वक्त के संग लोग अब इन चीजों को कर रहे हैं और बस कर रहे हैं। हम यह नहीं कह रहे कि, करना गलत है या सही है। हम बस यह कह रहे हैं कि, जब आज का समाज बहुत सी चीजों में लॉजिक्स की बात करता है उसे लॉजिक्स के हिसाब से कुछ अच्छे इंडियन ट्रेडिशन पर जोर देना चाहिए जो अच्छे भी है और फैशनेबल भी लगते हैं।