बैंगलोर का नाम सुने हैं, जी उसी शहर के बारे में बात कर रह हैं जहां भारत के आईटी इंडस्ट्री का गढ़ है, जिसे भारत का सीलिकॉन वैली कहा जाता है। जितनी तेजी से बैंगलोर का विकास हुआ शायद ही किसी और शहर का विकास हुआ हो। सिर्फ आईटी हब ही नहीं बैंगलोर देश का बॉयो-टेक हब और स्टार्टअप हब भी है। इसके अलावा यह देश का पहला शहर है जहां बिजली आई थी। यानी तकनीक के क्षेत्र में बैंगलोर का कोई जवाब नहीं है। लेकिन इन सब से एक घाटा हुआ और वो ये कि, यहां जल संटक गहरा गया।

ये कैसे, तो इसकी डिटेल में जाने की जरूरत नहीं है क्योंकि इतना आप भी समझ सकते हैं कि हब का मतलब क्या होता है। हब था तो आबादी बढ़ी, जिससे अतिक्रमण भी हुए और इसमें झीलों की जमीनें भी गईं, वहीं बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां भी हैं तो 1000 झीलों वाले इस शहर में भी पानी खत्म होने लगा और तीन साल पहले यहां कुछ ऐसा हुआ कि लोगों को सचेत होना पड़ा।
Usha Rajagopalan- जिनकी वजह से फिर से जिंदा हुए बैंगलुरू के जलाशय
बैंगलुरू की सबसे बड़ी झील है वेलनतूर, इसमें कुछ ऐसा हुआ जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। इस झील मे झागें बनने लगीं थी। यह खबर पूरी दुनिया में फैली, पूरी झील में सिर्फ झाग दिखते थे, ऐसा इसलिए था क्योंकि बैंगलुरू का 40 फीसदी कचड़ा यानी रोजाना 50 करोड़ लीटर की गंदगी इस झील में डाली जाती थी। यह संकेत जब तक आया उसके पहले के तीन दशकों में बैंगलुरू के 80 फीसदी वॉटर बॉडीज सूख चुकी थीं।
लेकिन कहते हैं न कि, चेतावनी मिलने पर जो संभल जाए वो बहुत कुछ कर सकता है। ऐसे में बैंगलुरू के लोगों ने यहां के जलाशयों को फिर से जिंन्दा करने पर जोर दिया। इस काम में सबसे आगे जो महिला आईं वो थी ऊषा राजागोपालन। ऊषा राजगोपालन ने अपने जैसे कई लोगों संग मिलकर शहर के झीलों को बचाने का काम शुरू किया। उन्होंने यहां की दम तोड़ती झील पुट्टनहल्ली को बचाने के लिए 10 साल लगा दिए। इसमें प्रशासन ने भी उनका सहयोग किया। उषा ने 2010 में अपने कई पड़ोसियों और जानकारों को जोड़कर झीलों के लिए एक ट्रस्ट बनाया जिसका नाम था नेवरहुड लेक इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट।
वें बताती हैं कि, इस ट्रस्ट के जरिए उन्होंने बैंगलुरू की झीलों की साफ-सफाई का काम शुरू किया। इसके लिए बहुत ही सस्ते और आसान सी तकनीक का इस्तेमाल किया गया। उन्होंने झीलों मे बेकार पड़े पीवीसी पाइप के जरिए आर्टीफिशियल तैरने वाले टापू बनवाए। इन टापुओं में प्लास्टिक की बोतलों को भरकर उसमें बॉयो-फिल्टर पौधे लगाए गए। ये पौधे पानी से नाइट्रोजन और फॉसफोरस जैसे तत्वों को सोखते हैं और पानी की गुणवत्ता को बनाए रखते हैं। इससे पानी साफ होने के साथ ही हरियाली भी बढ़ी।
Usha Rajagopalan और उनके साथियों ने मरती झील को ऐसे बचाया

ऊषा बताती हैं कि, उन्होंने बहुत रिसर्च के बाद हाइड्रोफोनिक तकनीक का यह तरीका अपनाया। यह ठीक वैसे ही हैं जैसे हम घरों में बोतलों में मनी प्लांट लगाते हैं जो उसी बोतल में से जरूरी तत्व लेकर बढ़ता है। वे बताती हैं कि, पहले यह झील ऐसी नहीं थी। यह गंदी थी और खत्म होने की कगार पर थी। उषा कहती हैं कि, मुझे लगा कि अगर ये झील खत्म हुई तो इसकी जिम्मेदारों में मैं भी होंगी।
झील के लिए बीबीएमपी ने इसके आस-पास के इलाकों के अवैध कब्जों को खाली कराकर 13 एकड़ के करीब के इलाके को घेरकर झील के विकास के लिए दे दिया है। वहीं बीबीएमपी ने पीएनएलआईटी के साथ भी एमओयू साइन किया है। आज यह झील यहां रहने वाले लोगों के परिवार का हिस्सा है और वे अपनी जिम्मेदारी समझकर इसकी देख-रेख का हर जिम्मा उठाते हैं। वहीं सीएसआर की ओर से भी इस ट्रस्ट को फंड मिला है।
बैंगलुरू में झीले इस शहर के शुरूआती दिनों से ही बनाई गईं। क्योंकि यहां कोई ऐसी नदी नहीं थी जिसमें पूरे साल पानी रहता हो। बैंगलुरू में कभी इतनी झीलें थी कि, कहा जाता था यहां अब और जगह नहीं है कि झील बनाई जा सकें। लेकिन बाद में जब तकनीक के दिन आए तो घरों में पानी पाइपों से पहुंचने लगा और झीलें लावारिस हो गई, जिससे ये कचड़ा डालने की जगह बन गईं। लेकिन ऊषा राजगोपालन और उनके नेवरहुड ट्रस्ट के लोगों ने झीलों की अहमियत को जाना और फिर से बैंगलुरू को उसका पुराना तमगा ’पोंड हब वापस दिलाने में लगे हुए हैं।