कोरोना काल में भी निकली भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा, क्या आप जानते हैं इसकी मान्यताएं

हर साल की तरह इस साल भी भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा पूरी शोभा के संग निकाली गई है। हाल ही, में रथयात्रा को नहीं निकाले जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था, लेकिन लोग इसके खिलाफ गए और हारकर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के संग रथ यात्रा को निकालने की अनुमति दे दी। यानि सालों से चली आ रही ये परंपरा कोरोना काल में भी निरंतर जारी रहेगी।

सुप्रीम कोर्ट ने रथ यात्रा को लेकर शर्त रखी है कि, स्वास्थ्य से कोई कॉम्प्रोमाइज नहीं होना चाहिए। अब ऐसे में ये मंदिर कमेटी और केंद्र व राज्य सरकार के जिम्मे है कि, वो रथ यात्रा के दौरान किस तरह से लोगों के स्वास्थय और सामाजिक दूर के नियमों का पालन करती है। भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा हर साल जब भी निकलती है तो भगवान के दर्शन करने के लिए हजारों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है। ऐसी मान्यता है कि, इस रथ यात्रा में जो कोई भी सच्चे मन और श्रद्धा से शामिल होता है उसको मरणोपरांत मोक्ष की प्राप्ति होती है। यानि जीव आत्मा जन्म मृत्यु के चक्कर से हमेशा के लिए छूटकर परमात्मा में विलीन हो जाती है। जगन्नाथ भगवान की कृपा कई हजार सालों से ऐसे ही लोगों के ऊपर बनीं है, इनकी रथ यात्रा की अपनी खासियत हैं और इससे कई मान्यताएं और कहानियां जुड़ी हैं।

भगवान जगन्नाथ मंदिर और इसकी कहानी भगवान जगन्नाथ मंदिर भगवान विष्णु और उनके आठवें अवतार भगवान श्री कृष्ण के भक्तों की आस्था का केंद्र है। इस मंदिर की अकल्पनीय वास्तु कला के साथ ही ये मंदिर के कई राज ऐसे है जिनके चलते खुद इंजीनियर्स भी आश्चर्य में पड़े हुए हैं। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता है भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की अनोखी मूर्तियां। जो एक हीं लकड़ी के टुकड़े से बनी हैं। ये मूर्तियां अधूरी है। कहा जाता है कि  भगवान जगन्नाथ भगवान श्री विष्णु की इंद्रनील या कहें नीलमणि से बनी मूर्ति एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। मूर्ति की भव्यता को देखकर धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपा दिया।

मान्यता है कि मालवा नरेश इंद्रद्युम्न जो कि भगवान विष्णु के कड़े भक्त थे, उन्हें सपने में स्वयं भगवान के दर्शन हुए और ये आदेश मिला कि वो समुद्र तट पर जाएं, जहां उन्हें एक लकड़ी का लठ्ठा मिलेगा, उसी लट्ठे से वो मूर्ति का निर्माण करवाएं। अगले दिन राजा समुद्र तट पर गए तो उन्हें लकड़ी का लट्ठा मिला। लेकिन उनके सामने प्रश्न था कि, इससे मूर्ति कौन बनाएगा। कहा जाता है कि भगवान विष्णु स्वयं श्री विश्वकर्मा के साथ एक वृद्ध मूर्तिकार के रुप में प्रकट हुए। उन्होंनें कहा कि वे एक महीने के अंदर मूर्तियों का निर्माण कर देंगें। लेकिन उनकी शर्त थी कि वे ये काम एक बंद कमरे में करेंगे और एक महीने तक उस कमरे में कोई भी प्रवेश नहीं करेगा।

ऐसे में निर्माण काम शुरू हुआ, इस बीच राजा ने गौर किया कि, कमरे से कोई आवाज नहीं आ रही। वे अंदर जाने का सोचते लेकिन शर्त से वे बंधे थे। ऐसे में महीने के आखिरी दिन भी जब कोई आवाज नहीं आईं तो कोतुहलवश राजा से रहा न गया और अंदर झांककर देखने लगे लेकिन तभी वृद्ध मूर्तिकार दरवाजा खोलकर बाहर आ गये और राजा को बताया कि मूर्तियां अभी अधूरी हैं उनके हाथ नहीं बने हैं। राजा को अपने कृत्य पर बहुत पश्चाताप हुआ और वृद्ध से माफी भी मांगी लेकिन उन्होंने कहा कि यही दैव की मर्जी है। तब उसी अवस्था में मूर्तियां स्थापित की गई। आज भी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की मूर्तियां उसी अवस्था में हैं।

Jagannath Puri Rath Yatra की कहानी

आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को ओडिशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ रथयात्रा निकाली जाती है, 10 दिन के इस महोत्सव में देश से लेकर विदेशों तक के श्रद्धालु जुटते हैं। लेकिन ये रथ यात्रा कब और कैसे शुरू हुई? हर साल कई लोगों के मन में ये सवाल भी इस रथ यात्रा के साथ ही उठने शुरू हो गए।  इस सवाल का जवाब आज के इतिहास की किताबो में नहीं मिलता। इस सवाल का जवाब पौराणिक ऐतिहासिक ग्रंथों में मिलता है। जगन्नाथ यात्रा को लेकर इतिहास हमे पुराणों में मिलता है। ब्रह्म पुराण, स्कन्द पुराण और पद्म पुराण में इसका जिक्र आता है। यानि ये रथ यात्रा कई हजार सालों से निरंतर चलती आ रही है।

इस रथ यात्रा को लेकर कई मान्यताएं हैं। एक मान्यता है कि जब भगवान श्री कृष्ण को उनके मामा कंस में मथुरा बुलाया था तब वे अपने भाई संग रथ पर पूरे राज्य का भ्रमण करते हुए आए थे और रास्ते में लोग उनके दर्शन के लिए उमड़ पड़े थे। वहीं एक कहानी ये है कि द्वारका में एक बार भगवान कृष्ण की बहन सुभद्रा ने उनसे राज्य भ्रमण करने की इच्छा जाहिर की, जिसके बाद दोनों भाई अपने बहन संग रथ पर सवार होकर यात्रा के लिए निकले।

एक मान्यता ये है कि, द्वारिका में श्री कृष्ण रुक्मिणी आदि राज महिषियों के साथ शयन करते हुए एक रात निद्रा में अचानक राधे-राधे बोल पड़े। महारानियों को आश्चर्य हुआ। जागने पर श्रीकृष्ण ने किसी को कुछ नहीं बताया। लेकिन रुक्मिणी ने अन्य रानियों से बात की कि, हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी राधा को प्रभु नहीं भुला सके। राधा की श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय किया। इसपर माता रोहणी ने सुभद्रा को दरवाजे पर पहरा देने को लेकर रानियों को ये कहानी बताने लगीं।

माता रोहिणी के कथा शुरू करते ही श्री कृष्ण और बलरम अचानक अन्त:पुर की ओर आते दिखाई दिए। सुभद्रा ने उचित कारण बता कर उन्हें द्वार पर ही रोक लिया। द्वार पर खड़े  कृष्ण बलराम ने भी रासलीला की वार्ता सुनी। अपनी शैतानियों और क्रियाओं को सुनते-सुनते उनके बाल खड़े होने लगे, आश्चर्य की वजह से आंखें बड़ी हो गईं और मुंह खुला रह गया। वहीं, खुद सुभद्रा भी इतनी मंत्रमुग्ध हो गईं कि, प्रेम भाव में पिघलने लगीं। यही कारण है कि जगन्नाथ मंदिर में उनका कद सबसे छोटा है। सभी कृष्ण जी लीलाओं को सुन रहे थे कि, इस बीच यहां नारद मुनि आ गए। वे वहां पहुंच कर सबके हाव – भाव देखने लगे, नारद जी ने कृष्ण जी के उस मन को मोह लेने वाले रूप को देखकर कहा कि “वाह प्रभु, आप कितने सुन्दर लग रहे हैं। आप इस रूप में अवतार कब लेंगे?” उस वक्त कृष्ण जी ने कहा कि, वह कलियुग में ऐसा अवतार लेंगे।

Jagannath Puri Rath Yatra- अपनी मौसी के घर जाते हैं प्रभु

रथ यात्रा से पहले कुछ पौराणिक मतों को दोहराया जाता है। इसमें मान्यता है कि, स्नान पूर्णिमा यानी ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन जगत के नाथ श्री जगन्नाथ पुरी का जन्म हुआ था। इस दिन को मंदिर में भगवान को भाई बलराम जी और बहन सुभद्रा के साथ रत्नसिंहासन से उतार कर मंदिर के पास बने स्नान मंडप में ले जाया जाता है। 108 कलशों से उनका शाही स्नान होने के बाद माना जाता है कि, प्रभु बीमार हो जाते हैं उन्हें ज्वर आ जाता है।

इसके कारण 15 दिन तक भगवान को विशेष कक्ष जिसे ओसर घर कहते हैं वहां रखा जाता है। इन 15 दिनों की अवधि में महाप्रभु को मंदिर के प्रमुख सेवकों और वैद्यों के अलावा कोई और नहीं देख सकता। इस दौरान मंदिर में महाप्रभु के प्रतिनिधि अलारनाथ जी की प्रतिमा स्थपित की जाती हैं तथा उनकी पूजा अर्चना की जाती है। 15 दिन बाद भगवान स्वस्थ होकर कक्ष से बाहर निकलते हैं और भक्तों को दर्शन देते हैं। जिसे नव यौवन नैत्र उत्सव भी कहते हैं। इसके बाद द्वितीया के दिन महाप्रभु श्री कृष्ण और बडे भाई बलराम जी तथा बहन सुभद्रा जी के साथ बाहर राजमार्ग पर आते हैं और रथ पर विराजमान होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं।  आज तक ये परंपरा ऐसे हीं निभाई जाती है।

इसके बाद रथ यात्रा निकलती है। यह रथ यात्रा मंदिर से गुंडीचा मंदिर जिसे मौसी मां मंदिर भी कहते हैं तक होती है। पहले दिन तीनों भगवानों की मूर्तियों को श्री मंदिर से निकाल कर तीन अलग अलग रथों में रखा जाता है और यात्रा शुरू होती है। पहला रथ जिसमे भगवान बलराम होते हैं उसे तलाध्वजा कहते हैं, ये रथ 45 फूट का होता है, भगवान कृष्ण के रथ को नंदीघोष कहा जाता है जो 45.6 फीट का होता है और देवी सुभद्रा के रथ को दर्पदलन कहते हैं जो 44.6 फीट ऊंचा होता है। यात्रा 7 दिनों तक गुंडीचा मंदिर में रुकती है जहां भक्तों की भीड़  भगवान के दर्शन के लिए उमड़ती है।

मान्यता है कि तीसरे दिन माता लक्ष्मी भगवान को ढूंढते हुए यहां पहुंचती हैं लेकिन द्वैतापति दरवाजा बंद कर देते हैं जिससे रूष्ट होकर माता रथ का पहिया तोड़ देती हैं और हेरा गुहरी शाही पुरी नाम के एक मोहल्ले के अपने मंदिर में चली जाती हैं। इसके बाद भगवान जगन्नाथ उन्हें मनाने पहुंचते हैं, उपहार भेंट करते हैं। इसके बाद आषाढ माह के दसवे दिन यात्रा वापस मंदिर की ओर लौट जाती है। अगले दिन एकादशी को मंदिर के कपाट खुलते है और  वैदिक मंत्रोच्चारण के संग इनकी फिर से स्थापना होती है। 

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