कहानियां या किस्से वक्त के साथ-साथ धूमिल हो जाते हैं. ऐसे में उनकी पुण्यतिथि या फिर उन पर कोई सम्मान ही उन्हें खासकर याद रखने की वजह बनते हैं. जैसे हमारी आजादी की ही बात ले लो. जिस समय हमारा देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा, खुद को आजाद कराने की भरकस कोशिशें कर रहा था. उस दौरान अनेकों भारतीय सपूतों ने अपना बलिदान दिया. अनेकों लोगों ने अपनी जान गवां दी ताकि, देश को अंग्रेजों से मुक्त कराया जा सके. ऐसे में अनेकों नाम हमें याद हैं. हाँ मगर अनेकों नाम ऐसे भी हैं जिनके नाम तो क्या….उनके बारे में कहीं कुछ लिखा तक नहीं गया है.
जैसे कि, आजीज़ूनबाई, होससैनी, गौहर जान या फिर हुस्ना बाई. ये वो नाम हैं जो आम इंसानों की दुनिया में ज्यादा अहमियत नहीं रखती. वजह है बस, इनका तवायफ होना. क्योंकि तवायफों की दुनिया आम इंसान से काफी परे होती है. भले ही अधिकतर आम इंसान चोरी छिपे इनके पास जाकर, फिर इन्हीं की बुराई करते फिरते हों.
चलिए अब हम आपको बताते हैं आखिर ये वीरांगनाऐं कौन थी. जिन्हें तवायफों का दर्जा तो हमारे आजाद भारत में दिया गया. हाँ उन्होंने देश की खातिर क्या किया, उसे दर्ज करना भुला दिया गया.
आजीज़ूनबाई एक वीर योद्धा

1857 की क्रांति के बारे में आज हर कोई जानता है. ये वो शुरुवात थी जिस समय भारत में आजादी की खातिर पहला संग्राम शुरू हुआ था. ऐसे में 1857 की क्रांति के बारे में हम सभी जानते हैं. हालांकि उसके बावजूद भी हम एक पहलू से आज तक अंजान हैं. एक ऐसा पहलू जिन्होंने इस आंदोलन को संभव बनाया था. वो नाम थी आजीज़ूनबाई. जोकि पेशे से तो एक तवायफ थी. उसके बावजूद भी देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने की खातिर. उन्होंने बहादुरी की एक ऐसी मिसाल पेश कि, जिससे अधिकतर लोग आज अंजान हैं.
जिस समय हमारे देश में 1857 की क्रांति की लहर की शुरूवात हुई थी. उस समय देश में कई जगह अंग्रेजों के विरूद्ध संग्राम छिड़ गया था. ऐसे में भारतीय सैनिक ने कौनपोर (कानपुर) को अपने बस में करना चाहते थे. ताकि अंग्रेजी हुकुमत को वहाँ से खत्म किया जा सके. हालांकि अंग्रेजी सैनिकों ने उन सबको घेर लिया था. हालांकि उस वक्त भारतीय सैनिकों के बीच में एक ऐसी योद्धा आजीज़ूनबाई भी थी. जो मर्दान कपड़े पहनकर, हाथ में पिस्तौल लेकर और घोड़े पर सवार होकर सभी को डटे रहने का आदेश दे रही थीं.
ऐसे में उस भीड़ का अहम हिस्सा आजीज़ूनबाई जो भारत की आजादी शुरुवाती क्रांति का हिस्सा थी. उनके बारे में किसी भी पाठ्यपुस्तक में कहीं जिक्र तक नहीं मिलता. हाँ मगर उनके बारे में स्थानिय कहानियों में सुनने को मिलता है. ऐतिहासिक रिपोर्ट व शोध में मिले कागजों में पढ़ने को मिलता है.
आजीज़ूनबाई के बारे में

आजीज़ूनबाई के बारे में, जवाहरलाल विश्वविद्यालय की सेंटर फॉर वुमन्स स्टडीज़ की असोसिएट प्रोफेसर लता सिंह ने बताती हैं कि, “आजादी में कई नामों को तो हम जानते हैं. हाँ मगर मुख्यधारा के इतिहास में उन सभी औरतों की योगदान खत्म कर दिया गया. जिनको लिखा जाना चाहिए था. फिर भी आजीज़ूनबाई के अनेकों लेख सबको मिलते हैं.”
आजीज़ूनबाई के बारे में वीडी सावरकर, एसबी चौधरी जैसे लेखकों ने भी लिखा है. साथ ही उनकी गौरव गाथा का वर्णन किया है. ऐसे में ऐसा भी माना जाता है कि, जिस दौरान नाना साहिब ने शुरूवाती समय में कानपुर में अंग्रेजों को हटाकर झंडा फहराया था. उस समय आजीज़ूनबाई उस रैली में मौजूद थी. आज भले ही आजीज़ूनबाई का नाम अधिकतक लोग न जानते हों. हाँ मगर उनकी गौरव गाथा का वर्णन कानपुर की कस्बों की कहानियों में गूंजता रहता है.
भले ही आजीज़ूनबाई, एक तवायफ थी. हालांकि इसके अलावा वो एक जासूस, सेनानी और खबरी भी थीं. जिनका जन्म लखनऊ में एक तवायफ के यहाँ हुआ था. इसके बार जब वो बड़ी हुई तो, वो कानपुर के ऊमराव बेगम के लूरकी महल में रहने की लिए चली गईं.
लता सिंह आगे कहती हैं कि, “आजीज़ूनबाई का घर आजाद भारत की क्रांति के समय सिपाहियों का अड्डा बन गया था. जहाँ उन्हीं की तरह अनेकों ऐसी महिलाएं थी. जो निडर होकर भारत को आजाद कराने की खातिर, सिपाहियों का मनोबल बढ़ाती रहती थीं. सिपाहियों को चोट लगने पर उनका देखभाल करती थीं. साथ ही हथियारों को भी रख-रखाव करती थीं.”
ऐसे में जिस समय अंग्रेजी सैनिकों ने सभी को घेर लिया था. उस दौरान हाथों में पिस्तौल पकड़े आजीज़ूनबाई अपनी अन्य साथियों के साथ लड़ रही थीं. हालांकि आज उनकी बहादुरी का किस्सा किसी भी पाठ्यपुस्तक तक में नहीं मिलता.
होससैनी गुमनाम नायिका

आजीज़ूनबाई की तरह ही एक गुमनाम नायिका हैं, होससैनी. जिन्होंने 1857 की ही क्रांति में अपना अहम योगदान निभाया था. जिसे आज शायद ही कोई जानता हो, आजाद भारत की खातिर जहाँ एक ओर भारतीय सैनिक अंग्रेजों की जड़ों को कमजोर कर रही थीं. उस समय कानपुर के सतीचौर घाट पर कत्लेआम हुआ था. उस दौरान बौखलाई अंग्रेजी हुकूमत ने कानपुर को चारों तरफ से घेरना शुरू कर दिया था. ऐसे में 15 जुलाई 1857 को देर शाम बीबीघर में कई लोगों ने मिलकर अंग्रेजी महिलाओं और बच्चों को मौत के घाट उतार दिया था. साथ ही अगली सुबह उनक शवों को वहाँ मौजूद कुएं में ड़ाल दिया था.
होससैनी उन प्रमुख साजिशकर्ताओं में से एक थी. उस दौरान हुए बीबीघर नरसंहार में लगभग 100 महिलाएं और बच्चों की हत्या की गई थी.
बीबीघर गुलाम भारत में एक ऐसा किला था. जहाँ अग्रेंजी अधिकारी आकर ठहरते थे. ऐसे में अंग्रेजी सेना और सिपाह सलहाकार उनके लिए भारतीय नारीयों, बच्चियों को उनके पास भेजते थे.
गौहर जान

तवायफों के बारे में जब कोई बात करता है तो, उनकी मर्यादा, इज्जत ताख पर रख देता है. हालांकि उन सभी का योगदान गुलाम भारत को आजाद कराने की खातिर सर्वोपरि है. ठीक इसी तरह गौहर जान भी उन सभी तवायफों में से एक थी. जिन्होंने गुलाम भारत को आजाद कराने की खातिर लव की चिंगारी जलाई थी. जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन करते हुए स्वराज कोश में सक्रिय रूप से पैसे जमा कराए थे.
विक्रम सम्पत ने गौहर जान के बारे में एक किताब ‘माइ नेम इज़ गौहर जान’ में लिखा है कि, ‘गांधी जी के ही कहने पर गौहर जान ने एक समारोह में राशि एकत्रित करने की खातिर उसका आयोजन करवाया था. जिसमें गौहर जान ने शर्त रखी थी कि, अगर गांधी जी इस समारोह में आएगें तो इसे निभाएगीं. इसके बावजूद गांधीजी इस समारोह में नहीं पहुंच सके थे. उसके बावजूद गौहर जान ने समारोह सम्पन्न किया और जमा राशि आंदोलन की खातिर दान कर दी थी.’
इतिहास में इसी तरह की अनेकों ऐसी कहानियां हैं. जिन्हें दर्ज नहीं किया गया है. जिन्हें बस धूमिल होने की खातिर यूँ ही छोड़ दिया गया. हालांकि उसके बावजूद भी गांव के कस्बों, इलाकों और छोटे कहानीकारों ने उन्हें जिंदा रखा है.
जैसे कि, बेगम हज़रत महल
बेगम हज़रत महल, अवध के आखिरी नवाब वाजिद आली शाह की पत्नी. कई लेख बताते हैं कि, बेगम हज़रत महल शादी से पहले तक एक तवायफ थी. जिनकी शादी बाद में नवाव वाजिद से हुई. ऐसे में जिस समय अंग्रेजी सेना और भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की आर-पार की लड़ाई चल रही थी. उस दौरान उन्होंने अपने निर्वासित पति की जगह ली थी. साथ ही उन्होंन उन सभी सेनानियों की मदद लखनऊ पर कब्जा करने में की थी. हालांकि ये कब्जा अधिक दिनों तक नहीं रहा था.
ये उस समय की बात है. जिस समय हमारे देश में साहूकारों और अग्रेंजों के बनाए समांतों का हुक्का चलता था. उस समय तवायफों के यहाँ हर शाम सभाएं लगती थीं. अनेकों लोग उसमें शामिल होते थे. हालांकि तवायफों के देश प्रेम के चलते. ये शामें अधूरी होने लगी और साल 1900 आते-आते इनके समाज ने अपनी सामाजिक और आर्थिक जीवन की चमक खो दी.

इन सबके बाद भी वो कभी नहीं रूकी. क्योंकि साल 1920-22 में जहाँ एक ओर हमारे देश में अंग्रेजी सामानों के बहिष्कार की लहर चल रही थी. उस समय वाराणसी में तवायफों की एक टोली ने इस संग्राम में हिस्सा लिया था. जिसका नेतृत्व हुस्ना बाई ने किया था. जिसमें उन्होंने अंग्रेजी सामानों का बहिष्कार करने और भारतीय सामानों और देश को आज़ाद कराने गहनों की बजाए सभी को लोहे की कड़ियाँ पहनने का अनुरोध किया था.
तवायफों के ऐसे अनेकों और भी हिस्सें हैं. हालांकि हमारा समाज़ उन्हें बस एक वही वजह से पहचानता है. आज हमारे देश में इन्हें अनेकों नाम से जाना जाता है. इनकी इज्जत मर्यादा को ऐसी ताख पर रखा जाता है. जहाँ तक उनके हाथ कभी नहीं पहुंच पाते. पूरी जिंदगी वो उसी में गुज़ार देती हैं. बावजूद इसके ये सभी महिलाएं हमेशा से मजबूत और स्वतंत्र होती हैं. चाहे हमारे इतिहास की बात हो, आज की बात हो या फिर आने वाले भविष्य की बात ही क्यों न हो.