दुनिया एक अबूझ पहेली है. विशेषज्ञों से लेकर जानकारों यहाँ तक की पुराणों ग्रन्थों सभी की मानें तो, इंसान भले ही दुनिया में इकलौता ऐसा प्राणी है. जो दुनिया को अपने बस में करने का मद्दा रखने के साथ इसके बारे में सोचता है. लेकिन हकीकत ये है कि, जब भी इंसान प्रकृति के खिलाफ जाना चाहता है, तो प्रकृति उससे वो सबकुछ छीन लेने पर ऊतारू हो जाती है. आज हमारे देश से लेकर दुनिया भर में क्वारांटाइन शब्द एक ऐसा शब्द बन चुका है. जिसको अगर किसी बच्चे को भी सुनाया जाए तो वो कहेगा….खुद को अपने घरों में कैद कर लेना. हकीकत भी कुछ ऐसी ही है. क्योंकि आज समाज को कोरोना वायरस के खतरे से बचाने के लिए इंसान के पास इसके अलावा कोई और उपाय नहीं रह गया है.
दुनिया भर में जब से साल 2020 की शुरूवात हई है, तब से कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले रखा है. जिसके चलते आज दुनिया भर का हर इंसान अपने घरों में कैद होने को मजबूर है. क्योंकि विशेषज्ञों और डॉक्टरों का कहना है की इस वायरस की चेन को तोड़ना सबसे ज्यादा जरूरी है. कुछ इसी तरह की घटना आज से लगभग 350 साल पहले भी घटी थी. जिस समय लोगों ने अपने आप को अपने घरों में कैद कर लिया था.
ग्रेट प्लेग ऑफ लंदन में खुशियों वाला गांव एयम

घटना है 1665-66 के बीच कि, जिस समय न तो दुनिया में ज्यादातर क्रांतिकारी खोज हुए थे. न ही इंसान के पास आज की तरह बेहतर सुविधाएं थी. आज जिस तरह कोरोना वायरस सबकी जान लेने पर आमादा है. ठीक इसी तरह 1665 में इंग्लैंड में एक भयानक बीमारी ने जन्म लिया था. जिसने इंग्लैंड में इतनी भयानक तबाही मचाई थी कि, उस समय इंग्लैड में 75 हजार से ज्यादा लोगों ने दम तोड़ दिया था. जब से दुनिया में कोरोना वायरस का कहर बरपा है, तब से जानकार इंसान कई बार “ग्रेट प्लेग ऑफ लंदन” के बारे में बात कर रहे हैं. लेकिन इन सबके बीच एक ऐसा गाँव भी लंदन में ही मौजूद है, जिसका जिक्र इस बीमारी से जोड़ कर किया जा रहा है.
लंदन से तकरीबन 3 घंटे की दूरी पर बसे डर्बीशायर डेल्स जिले में मौजूद एयम नाम के इस गांव की कहानी आज लंदन से लेकर दुनिया भर में मौजूद है. क्योंकि आज एयम गांव एक पर्यटक स्थल है. जहाँ इंसान घूमने जाया करता है. लेकिन आज से लगभग 350 साल पहले ये गाँव एक खूबसूरत और इंसानी बसाहट वाला गांव था. जहाँ त्यौहारों के साथ मेले भी लगते थे. लेकिन एक महामारी आई और ये पूरा गांव वीरान हो गया. ठीक उस तरह जिस तरह भारत के राजस्थान में मौजूद कुलधरा गाँव एक ही रात में वीरान हो गया. जहाँ उसके बाद से न तो कभी इंसान बस पाया. न ही वो खुशहाली फिर से लौट सकी.

आज लंदन के डर्बीशायर में मौजूद एयम गाँव के बाहरी हिस्सों में 1 हजार से ज्यादा की आबादी रहती है. लेकिन इस गाँव का मुख्य हिस्सा आज के समय में महामारी के चलते वीरान हो चुका है. क्योंकि साल 1665-66 के बीच इंग्लैंड के अनेकों हिस्सों में फैली प्लेग बीमारी ने खूब तबाही मचाई थी. उस समय के सरकारी रिकॉर्ड की बात करें तो, इस दौर में लगभग 75 हजार से ज्यादा लोगों ने इस बीमारी के चलते अपनी जान गंवाई थी.
लेकिन हकीकत यही नहीं है, क्योंकि कुछ इतिहासकारों का मानना है कि, इस बीमारी में एक लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी. इस समय फैली इस बीमारी की भयावह स्थिति को रोकने के लिए इंग्लैंड के एयम गाँव ने संक्रमण रोकने के लिए ऐसा काम किया था. जोकि कोई सोच भी नहीं सकता था. क्योंकि एयम गाँव ने अपने पूरे हिस्सों से लेकर अपने गाँव के सभी घरों को पूरी तरह क्वारांटाइन कर लिया, जिसके चलते इस बीमारी को रोकने में मदद मिली थी. लेकिन ये गाँव पूरी तरह वीरान हो गया.
क्वारांटाइन की शुरूवात
1665 में जिस समय पूरे लंदन में प्लेग फैला हुआ था, उस समय एयम गाँव इस बीमारी से पूरी तरह सुरक्षित था. लेकिन इस बीमारी से बेखबर इस गाँव के लोग इधर उधर टहला करते थे. यही वजह थी कि, गाँव में रहने वाला एक दर्जी अलेक्जेंडर हैडफील्ड इस बीमारी से बेखबर लंदन गया, जहाँ से उसने कपड़े का थान खरीदा था. और यहीं से ये गांव बर्बादी की तरफ बढ़ गया था. क्योंकि इस कपड़े के थान के साथ-साथ प्लेग फैलाने वाले पिस्सू ने इस गांव में दस्तक दी थी.
जिस समय अलेक्जेंडर हैडफील्ड अपनी दुकान में कर रहा था. उस समय हफ्ते भर के भीतर ही उसके सहायक जॉर्ज विकर्स की मौत हो गई, क्योंकि अलेक्जेंडर द्वारा लाए गए. बंडल को उसी ने खोला था. यही नहीं हफ्ते भर के भीतर उन लोगों की भी मौत का सिलसिला शुरू हो गया. जिससे जॉर्ज विकर्स मिला था. फिर पूरे गाँव में एक चेन बन गई. जिससे पूरे गाँव में संक्रमण फैल गया.

यही वजह रही कि, 1665 के सितंबर से लेकर दिसंबर तक इस गांव में 42 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी थी. फिर गाँव के लोगों ने एक योजना बनाई कि, वो खुद को इस गांव से बाहर निकाले और खुद को सुरक्षित कर लें. लेकिन गाँव के ही रहने वाले रेक्टर विलियम मोम्पेसन और पूर्व रेक्टर थामस स्टेनली ने अपने गांव के सभी लोगों को समझाया कि, ऐसा करने से बाहर भी लोगों में ये बीमारी फैलने का डर है. क्योंकि हर ओर इस बीमारी से लोग ग्रसित हैं.
जिसके चलते पूरे गाँव के पास एक ही रास्ता था कि, वो सभी अपने आप को कैद कर लें. ताकि गाँव के आस पास ये बीमारी न फैले. क्योंकि गांव के बाहर ये बीमारी नहीं फैली थी. बहुत समझाने के बाद गांव के कई लोग मान गए. लेकिन कुछ लोग जो स्वस्थ थे. वो नहीं माने और गांव से बाहर चले गए. .जिसके बाद न तो वो कभी वापस लौटे. जिसके बाद गांव के लोगों ने 24 जून 1666 को अपने गांव के सभी रास्तों को पूरी तरह बंद कर दिया. विलियम मोम्पेसन के कहने पर सभी लोगों ने मिलकर पत्थरों से गांव के चारों और दीवार बना दी. जिसे आज भी “मोम्पेस्सन वेल” के नाम से पहचाना जाता है.
इस दीवार में एक छोटा सा छेद भी बनाया गया था. जहाँ से लोग खाने पीने का सामान ड़ाला करते थे. जबकि गाँव के अंदर रहने वाले लोग दूसरे लोगों को सिक्के दिया करते थे. जबकि गांव की महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए गांव के लोगों ने मिलकर सुरंगें खोद दी थी. जहाँ उन्हें सुरक्षित रखा जा सके. और उन्हें इस बीमारी से बचाया जा सके.
जबकि इस बीमारी से जान गंवाने वालों लोगों को दूर जंगलों में दफना दिया जाता था. जबकि किसी भी व्यक्ति के अंतिम संस्कार में गांव में से कोई भी नहीं जा सकता था. न ही कोई अपने घरों से बाहर निकलते थे. गांव में मौजूद चर्च को भी बंद कर दिया गया था. जितनी भी सभा होती थी. सभी खुले मैदान में होती थी. जिसमें केवल वहीं लोग शामिल होते थे. जो जरूरी या जिम्मेदार होते थे.
क्वारांटाइन में मरते रहे लोग, ताकि दूसरे बच सकें

जहाँ पूरे गाँव में इस तरह के कई बंदोबश्त किए गए. ताकि इस बीमारी को रोका जा सके. वहीं इस बीमारी से मरने वाले लोगों की संख्या हर दिन बढ़ती रही. वहीं इस बीमारी का सबसे बुरा दौर 1666 के अगस्त महीने में दिखाई दिया. जिस समय गांव में हर रोज 5 से 6 मौतें होने लगी. इस समय गांव में एक भी ऐसा घर नहीं रह गया था. जिस घर में शव न हो. इस गाँव में रहने वाली एक औरत एलिजाबेथ हैनकॉक के बारे में कहा जाता है कि, इन्होंने 8 दिन के भीतर ही अपने पति के अलावा अपने 6 मासूम छोटे बच्चों को दम तोड़ते देखा था. ये एक ऐसा समय था. जिस समय ये औरत अकेली कब्र खोदती थी, और उसमें सभी को दफनाती थी. उसके बावजूद भी कोई इंसान उसकी मदद को नहीं आता था. क्योंकि उसे डर था कि, कहीं ये बीमारी उनको न हो जाए.
लेकिन धीरे-धीरे गांव में मौजूद लोगों ने वो मंजर देखा. जो सबसे ज्यादा विकराल था. क्योंकि गांव में अधिकांश परिवार तो इस बीमारी की चपेट में आने की वजह से, खत्म हो चुके थे. जबकि कुछ खत्म होने को थे. लेकिन उसके बावजूद भी गांव के लोगों ने ये बीमारी आस पास के गांव में नहीं फैसले दी.
मोम्पेसन ने उस समय लिखी अपने ड़ायरी में बताया है कि, ये दौर कितना भयानक था. जस समय सभी प्लेग से मर रहे थे, गांव के लोगों में ईश्वर के प्रति विश्वास था, वो मौत से घबराए नहीं, न ही भागे, ताकि वो दुनिया और देश को सुरक्षित रख सकें. दूसरी तरफ ये बीमारी जोकि एक समय तक अपने चरम पर थी वो धीरे-धीरे थम गई और फिर 1 नवंबर आते आते बीमारी अचानक गायब हो गई.
जिस समय ये बीमारी खत्म हुई, उस समय तक एयम गांव के लोग ने अपने आधे से ज्यादा परिवारों को खो दिया था. सरकारी दस्तावेजों की मानें तो, उन्होंने बीते एक साल में अपने गांव के 76 परिवारों में से 260 से भी ज्यादा लोगों की मौत देखी. जबकि इस गाँव में आबादी उस समय 800 से भी कम थी. लेकिन जब महामारी का दौर खत्म हुआ. तब तक एयम गांव के लोग इतना डर चुके थे कि उन्हें क्वरांटाइन में रहने की आदत तक पड़ चुकी थी.

वक्त बीतता गया, कुछ महीने और फिर साल गुजरने के बाद इस गांव के लोगों को धीरे-धीरे एयम के मुख्य गांव से बाहर निकाला गया. ताकि मुख्य गांव को खाली कराया जा सके. उसके बाद एयम गाँव कभी दोबारा नहीं बसा. जिसके चलते आज ये एक पर्यटक स्थल बन गया. जहाँ घूमने वाले लोग प्लेग बीमारी से फैली महामारी का दर्दनाक मंजर आज भी महसूस करते हैं.
वाकई हम सभी कह सकते हैं, आज का क्वारांटाइन उस समय के क्वारांटाइन से काफी बेहतर है, समय है उसे समझने कि, महसूस करने की मानवता और इंसानियत को बनाए रखने कि, ताकि दांव पर लगी जिंदगियों को बचाया जा सके. ताकि जो दंश आज से 350 साल पहले इंग्लैंड के एयम गांव ने झेला. वो कोई न झेले. इसलिए क्वारांटाइन में आज खुद को कोई भी इंसान कैदी न समझकर एक योद्धा समझे. जो घरों में रहकर सभी की जान बचा रहा है.