भूख की तड़प शायद वही जान सकता है, जिसको दो वक्त की क्या एक वक्त की रोटी भी मुहाल हो. इन हालातों में बहुत लोग ऐसे होते हैं जो टूट जाते हैं. गलत रास्तों पर भटक जाते हैं और बहुत ऐसे होते हैं. जो अपनी मेहनत से समाज से अपना हिस्सा छीन लेते हैं. यहीं वो लोग होते हैं जो दूसरों को आईना दिखाते हैं. यही वो लोग होते हैं. जिनकी मिसाल लोग अक्सर दिया करते हैं. और ऐसा भी नहीं कि, इसके लिए एक उम्र होनी चाहिए.
क्योंकि जिस तरह इस लॉकडाउन के दौर में महज़ 13 साल के अवधेश ने कर दिखाया है. उसने एक बार फिर साबित कर दिया है कि, अगर खुद में समाज से लड़ने की हिम्मत है तो, समाज खुद विवश हो जाता है. आपका हिस्सा लगाने की खातिर.
आज लॉकडाउन का चौथा चरण शुरू होने को है. देशभर में जिस समय सब कुछ ठप्प पड़ गया था. उसके कुछ समय पहले यानि कि, होली के समय अवधेश के माता-पिता मजदूरी की खातिर अपनी दो बेटियों और अवेधश को अपने गाँव छोड़कर दिल्ली गए थे. ताकि, कुछ जमापुंजी इकट्ठा हो सके. घर बार चल सके. लेकिन कोरोना से बचने को पूरे देश में लॉकडाउन लगा दिया गया. ऐसे में अवधेश के माता-पिता दोनों ही दिल्ली में फंस गए. और उधर अवधेश और उसकी दो छोटी बहनें वो भी.
इस दौरान माता-पिता जितना राशन घर में छोड़कर गए. उसी से गुजारा चल रहा था. लेकिन धीरे-धीरे वो भी खत्म हो गया. ऐसे में जहाँ लॉकडाउन में किसी भी इंसान का घर से बाहर जाना मना है तो, वहीं अवधेश को अपनी भूख के साथ-साथ बहनों की भूख की चिंता सताने लगी. क्योंकि खुद की भूख को एक बार समझाया जा सकता है. लेकिन छोटी बहनों की भूख को नहीं.
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के रेहरिया गाँव में रहने वाले अवधेश का ना तो कोई गांव में रिश्तेदार रहता है और ना ही दिल्ली में गए उसके माता पिता लॉकडाउन में घर लौट सकते थे. ऐसे में अवधेश ने अपने हौसले के बूते अपना और अपनी बहनों की भूख मिटाने की सोची. अवधेश हर दिन गाँव से दूर गोला बाजार जाने लगा. जहाँ से वो ताजी सब्जियां लेकर आता और उसे अपने यहाँ मौजूद ठेले पर लादकर बेचने लगा. रेहरिया गाँव के आस-पास मौजूद सभी गाँव में सब्जियाँ बेचने के बाद वो जितना कमाता. उसका खाना लाता और अपनी बहनों का पेट भरता. यही वजह है कि, आज उसने अपने हिस्से की लड़ाई जीत ली.
लॉकडाउन में नहीं आया कोई मदद को
वैसे तो हमारे समाज में पिछले कुछ दिनों में नेताओं से लेकर गैर सरकारी संगठनों और न जानें कितनों ही लोगों की सक्रियता बढ़ गई है. अनेकों लोग ऐसे हैं, जिन्होंने इस दौर में अनेकों भूखों को खाना खिलाया. लेकिन हैरानी की बात तो ये है कि, न तो ग्राम पंचायत न ग्राम प्रधान और न ही नेताओं के सरकारी कारिंदों ने इन बच्चों की सुध ली. सरकारी इमदाद के तमाम दावे यहाँ हर तरफ से झूठे साबित हो गए. और एक बार फिर से ज़ाहिर हो गया कि, अगर ज़ज्बा खुद का अडिग हो तो, हमें न तो किसी के सामने झुकने की जरूरत है और नही हाथ फैलाने की.
रेहरिया गाँव की अगर बात करें तो, इस गाँव में नौकरी पेशा लेकर अमीर गरीब और मध्यम वर्ग हर तरह के इंसान रहते हैं. लेकिन सोचने वाली बात है कि, इनमें से किसी भी इंसान की नज़र इन पर नहीं गई. गाँव में करीब 50 परिवार ऐसे में जो पूरी तरह से मजदूरी पर निर्भर हैं. यही वजह है कि, ये लोग महानगरों में जाकर नौकरी करते हैं और अवधेश के माँ शिवरानी और पिता राम प्रसाद भी इसलिए दिल्ली जैसे शहर गए. ताकि, वहां मजदूरी कर सकें.

लॉकडाउन में भी मेहनत कर आत्मनिर्भर बने अवधेश
13 साल के अवधेश से जब ये सवाल हुआ कि, आखिर तुमने कैसे किया ये सब…तो उसने बिना समय गंवाए कहा कि, मेरे माँ-बाप ने मुझको खुद्दारी सिखाई है. खाना मांगता तो माँ-बाप के आने पर उन्हें क्या मुंह दिखाता. वो भी सभी के सामने खुद को लज्जित महसूस करते, यही वजह है कि, मैं हर दिन रोज सुबह 4 बजे जग जाता हूँ और गोला बाजार चला जाता हूँ. ताकि सब्जियाँ ला सकूँ और उसे बेच सकूँ. ताकि बहनों का पेट भर सकूँ. उन्हें समय पर खाना खिला सकूँ.
मुश्किल हालात में आज जिस तरह अवधेश ने ये साबित किया है कि, हमें किसी पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है. वहीं अवधेश महज़ पांचवी पास है. क्योंकि घर की माली हालात कभी ठीक नहीं रही. जबकि उसकी छोटी बहन नंदनी पांचवी कक्षा में है और उससे छोटी बहन मोनी अभी गाँव की प्राइमरी में कक्षा तीसरी में पढ़ती है.