आज अगर हम महिलाओं की बात करें तो कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां महिलाएं ना हो। आज महिलाओं का डॉक्टर इंजीनियर होना तो जैसे आम बात हो गई बल्कि महिलाएं आज ट्रक से लेकर प्लेन तक उड़ा रही हैं, बड़ी बड़ी इमारतें खुद बना रही हैं। महिलाएं ना सिर्फ सफल किसान के रूप में उभर रही हैं बल्कि अलग अलग क्षेत्रों में ऐसे ऐसे कीर्तिमान बना रही हैं। मगर ये सब अगर मुमकिन है तो सिर्फ और सिर्फ शिक्षा की वजह से। वैसे आज सरकारी योजनाओं और लोगों में बढ़ती जागरूकता की वजह से अब देश की ज़्यादातर लडकियां स्कूल जा रही हैं। मगर एक समय ये था जब लड़कियों पढ़ाई तो बहुत दूर की बात उस समय उनका घर से निकलना भी बेहद मुश्किल होता है। आज सरकार बेटियों के उत्थान के लिए बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान चला रही है मगर सावित्री बाई फुले ने तो कई साल पहले नारी मुक्ति आंदोलन की पहल की थी। आज कम से कम महिलाएं अपने अधिकारों के लिए आवाज तो बुलंद कर लेती हैं। मगर उन्नीसवीं सदी के दौर में भारतीय महिलाओं की स्थिति बहुत ही दयनीय थी। उस वक़्त महिलाएं पुरुषवादी वर्चस्व की मार झेल रही थीं, जो बहुत हद तक आज भी हमारे समाज में देखा जा सकता है। यही नहीं समाज की रूढि़वादी सोच की वजह से महिलाएं चुपचाप ना जाने कितनी ही यातनाएं और अत्याचार झेला करती थी, और ये सब होता था शिक्षित ना होने की वजह से। क्योंकि जब तक महिलाएं शिक्षित ही नहीं होंगी, तब तक वो ना तो अपने पैरों पर कड़ी हो सकती थी और ना ही अपने अधिकारों के लिए लड़ सकती थी। उस वक़्त महिलाओं की ज़िंदगी इतनी बदतर थी कि घर की देहरी लांघकर महिलाओं के लिए सिर से घूंघट उठाकर बात करना भी बहुत ही मुश्किल काम था। इसका फायदा उठा कर पुरुष प्रधान समाज महिलाओं के स्वाभिमान और उनकी आत्मा पर चोट कर के महिलाओं के दिलों को छलनी करते रहते थे। जिससे महिलाओं का आत्म गौरव, स्वाभिमान और उनकी इच्छाएं पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी थी। उस वक़्त महिलाओं ने इसी को अपनी नियति मान लिया था। महिलाओं ने ये सोच लिया था कि उनका जीवन ऐसा ही होता है और उन्हें हर हाल में ऐसे ही जीना पड़ेगा फिर चाहे वो दुखी हो या इसे ख़ुशी से स्वीकार कर लें।

मगर ऐसे समय में सावित्रीबाई फुले ने घर की देहलीज़ लांघी और घूंघट ऊपर कर के उन्होंने महिलाओं के लिए आवाज़ भी उठाई। सावित्रीबाई फुले देश की पहली महिला शिक्षक, समाज सेविका, मराठी की पहली कवियित्री और वंचितों की आवाज बुलंद करने वाली क्रांतिज्योति थी। उनका जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के के नैगांव में एक दलित कृषक परिवार में हुआ था। एक बार उनके पिता ने उनसे कहा- शिक्षा का हक़ केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही है, दलित और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करना पाप था। बस उसी दिन वो शिक्षा ग्रहण करने का प्रण कर बैठी थी। उन्होंने महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने में अहम भूमिका निभाई और भारत में महिला शिक्षा की अगुआ बनीं। सावित्रीबाई फुले को भारत की सबसे पहली आधुनिक नारीवादियों में से एक माना जाता है। भारत की महिलाओं को शिक्षित करने का श्रेय समाज सेविका सावित्रीबाई ज्योतिराव फुले को जाता है। इतना ही नहीं उन्होंने महिलाओं के अधिकारों, अशिक्षा, सतीप्रथा, बाल या विधवा-विवाह जैसी कुरीतियों पर भी आवाज उठाई थी।
तो जब सावित्रीबाई फुले 1840 में महज नौ साल की थीं तब ही उनकी शादी 13 साल के ज्योतिराव फुले से हुई। मगर उन्होंने शादी के बाद भी बाल विवाह और सती प्रथा जैसी बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई। एक बात अच्छी थी कि उन्हें अपने पति ज्योतिराव का भरपूर साथ मिला। ये उनके पति ही थे जिन्होंने सावित्रीबाई फुले को पढ़ाया लिखाया। ज्योतिराव ने अपनी पत्नी को घर पर ही पढ़ाया और एक शिक्षिका के तौर पर शिक्षित किया। हालांकि समाज को ये कहां मंजूर था। सावित्रीबाई फुले जब पढ़ाने के लिए अपने घर से निकलती थी, तब लोग उन पर कीचड़, कूड़ा और गोबर तक फेंकते थे। इसलिए वो एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थी और स्कूल पहुंचकर गंदी हुई साड़ी को बदल लेती थी। सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिराव फुले तब भी नहीं रुके उन्होंने 1848 में मात्र 9 विद्यार्थियों को लेकर एक स्कूल की शुरुआत की। देश में लड़कियों के लिए पहला स्कूल साावित्रीबाई और उनके पति ज्योतिराव ने 1848 में पुणे में खोला था। इसके बाद सावित्रीबाई और उनके पति ज्योतिराव ने मिलकर लड़कियों के लिए 17 और स्कूल खोले। सावित्रीबाई न केवल महिलाओं के अधिकारों के लिए ही काम नहीं किया, बल्कि वो समाज में व्याप्त भ्रष्ट जाति प्रथा के खिलाफ भी लड़ीं। बच्चों को पढ़ाई करने और स्कूल छोड़ने से रोकने के लिए उन्होंने एक अनोखा प्रयास किया। वह बच्चों को स्कूल जाने के लिए उन्हें वजीफा देती थीं।
सावित्रीबाई ने अपने पति के साथ मिलकर छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियों के विरुद्ध आवाज भी उठाई। सावित्रीबाई फुले ने विधवा विवाह की परंपरा भी शुरू की और इस संस्था के द्वारा पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसम्बर 1873 को कराया गया। इतना ही नहीं उन्होंने गर्भवती विधवाओं के लिए एक आश्रयगृह खोला, जहां वह बच्चा पैदा कर सकती थीं। सावित्रीबाई फुले ने उन बच्चों के लालन-पालन की भी व्यवस्था की। फुले दंपति ने बाल विवाह के खिलाफ भी सुधार आंदोलन चलाया था। ज्योतिराव फुले ने 28 जनवरी, 1853 को गर्भवती बलात्कार पीडि़तों के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह और 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की। इस सत्यशोधक समाज की सावित्रीबाई फुले एक अत्यंत समर्पित कार्यकर्ता थीं। यह संस्था कम से कम खर्च पर दहेज मुक्त व बिना पंडित-पुजारियों के विवाहों का आयोजन कराती थी। इस ऐतिहासिक क्षण पर शादी का समस्त खर्च स्वयं सावित्रीबाई फुले ने उठाया। 4 फरवरी, 1879 को उन्होंने अपने दत्तक पुत्र का विवाह भी इसी पद्धति से किया, जो आधुनिक भारत का पहला अंतरजातीय विवाह था।
सावित्रीबाई के पति ज्योतिराव का निधन 1890 में हो गया। उस समय उन्होंने सभी सामाजिक मानदंडों को पीछे छोड़ते हुए अपने पति का अंतिम संस्कार किया और उनकी चिता को अग्नि दी। इसके करीब सात साल बाद जब 1897 में पूरे महाराष्ट्र में प्लेग की बीमारी फैला तो वे प्रभावित क्षेत्रों में लोगों की मदद करने निकल पड़ी, इस दौरान वे खुद भी प्लेग की शिकार हो गई और 10 मार्च 1897 को उन्होंने अंतिम सांस ली। निश्चित ही सावित्रीबाई फुले का योगदान 1857 की क्रांति की अमर नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से कम नहीं आंका जा सकता, जिन्होंने अपनी पीठ पर बच्चे को लादकर उसे अस्पताल पहुंचाया। उनका पूरा जीवन गरीब, वंचित, दलित तबके व महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करने में बीता। समाज में नई जागृति लाने के लिए कवयित्री के रूप में सावित्रीबाई फुले ने 2 काव्य पुस्तकें ‘काव्य फुले’, ‘बावनकशी सुबोधरत्नाकर’ भी लिखीं। उनके योगदान को लेकर 1852 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया। साथ ही केंद्र और महाराष्ट्र सरकार ने सावित्रीबाई फुले की स्मृति में कई पुरस्कारों की स्थापना की और उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया। आधुनिक युग में कहने को तो महिलाएं नए-नए कीर्तिमान स्थापित कर रही हैं। लेकिन देश की आधे से अधिक महिलाएं आज भी शोषण का शिकार हैं। हर वर्ष महिला दिवस पर महिला सशक्तिकरण के नारे लगाए जाते हैं। परंतु आज भी महिलाओं को पूरी शक्ति प्राप्त नहीं हुई है। महिलाओं को अपने हकों की लड़ाई लडऩे में जिस क्रांति का आगाज सावित्री बाई फुले जी ने किया था। वह लड़ाई आज भी अधूरी है इसलिए महिलाओं को अपने लिए लगातार लड़ते रहना होगा और आगे बढ़ते रहना होगा।