सुरेश कुमार, जिनसे मिलकर आप घास उगाना और खाना सीख जाएंगे

मुझे याद है कि, जब मै छोटा था तब घर के आस-पास एक घास उगा करती थी। इसके पत्ते दिल के आकार के होते थे। हम लोग इसके पत्तों को तोड़ कर पीस कर चटनी बनाते थे या फिर ये पत्ते ऐसे ही खा लेते थे। ये पत्ता खाने में खट्टा और मीठा दोनों लगता था,  इसलिए हम इसे खटमिट्ठी भी कहते थे। लेकिन वक़्त बीतता गया तो इसको खाने से मनाही भी होती रही और ना तो अब वो पौधा दिखता है और न हमे बचपन में जैसे खाने की ललक थी वैसी ललक बची है। शायद कभी याद भी नहीं आती उस घास की। एक ऐसी हीं लता हुआ करती थी। जिसपर काले रंग के छोटे छोटे बेर लगते थे, वो भी अब गायब सी हो गयी है।

वक़्त के साथ हमारे आस पास उगने वाली इन घासो और खरपतवारों से हमारा रिश्ता भी खत्म हुआ है, जिसके कारण हम इनके महत्व और इनके उपयोग को भूल गए, और इसी कारण ये पौधे या घास गायब होते गए। वैसे गेहूं और धान, ये भी किसी जमाने में घास ही माने जाते होंगे, फिर किसी ने इनका महत्व समझा और खेती शुरू हुई, वहीं कई तरह के साग जो हम खाते हैं वो भी तो घास ही है। आज घासों की एक अलग कैटिगरी है जो आम तौर पर हमारी मुख्य फसल के लिए खराब मानी जाती हैं, और यहीं कारण है कि, खेतों में इन जंगली घासों को नहीं उगने देने के लिए दवाओं का प्रयोग होता है, या फिर मैनुअली इन्हे निकाल दिया जाता है। लेकिन भारत में कभी हर घास का एक अलग महत्व रहा है। इनमें से कईयों को तो लोग पकवान की तरह बनाते और खाते थे। जैसे दाल, भात, सब्जी बनती है वैसे ही इनको भी बनाया जाता था। मतलब डिश के मामले में भारत में कभी कोई कमी नहीं थी। लेकिन अब ये सब गायब हो गया है।

लेकिन एक इंसान भारत की इसी पारंपरिक विद्या को संजोने में लगा है। इनके लिए घास कोई बेकार की चीज नहीं है, बल्कि गेहूं और धान की ही तरह महत्तवपूर्ण फसल है और वे इन्हे शौक से अपने फार्म में उगाते हैं और खाने में इनका प्रयोग कैसे हो, लोगों को ये भी बताते हैं। हम जिनकी बात कर रहे हैं वे एक आर्टिस्ट हैं और साथ में ‘ Sarjapur Curries’ नाम से एक प्रोजेक्ट चलाते हैं। उनका नाम है सुरेश कुमार। सुरेश बेंगलुरु में रहते हैं और विजुअल आर्टिस्ट होने के साथ साथ आर्ट टीचर भी हैं। लेकिन उनका काम जो उन्हें लोगों के बीच यूनिक बनता है वो है ‘ घासों की खेती ‘,  यानि उन प्लांट्स को उगाना जिनका अब कमर्शियल वैल्यू नहीं है।

भारत के खाने में घास का अलग स्थान रहा है

घास क्या है? इसका जवाब बहुत कुछ हो सकता है। लेकिन आज के जमाने के हिसाब से जवाब एक ही है कि, जिस नेचुरल ग्रोइंग प्रोडक्ट की कोई कमर्शियल वैल्यू नहीं है वो ही घास है। मै ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आज की दुनिया कमर्शियल वैल्यू पर चलती है। अब बथुआ को ले लीजिए, ये गेहूं के संग उगता है, लेकिन इसे घास जानकार आज उखाड़ कर फेंक दिया जाता है। लेकिन कई गांवो में आज भी इसका शाक बनाकर खाया जाता है। इसमें विटामिन- ए सबसे ज्यादा मात्रा में पाया जाता है। लेकिन इसकी कमर्शियल वैल्यू गेहूं जितनी नहीं है।

हमारे देश में बथुआ जैसे कई घास हैं जिनका औषधीय महत्व है, लेकिन इनका पारंपरिक ज्ञान खत्म होता जा रहा है। सुरेश कहते हैं कि, आज हममें से ज्यादा लोग अपने खेतों में या फार्म में घासों के उगने से परेशान रहते हैं, क्योंकि हमे यह ही बताया गया है कि, ये घास सब्जियों और फलों के पौधे के संग न्यूट्रीशन लेने के लिए कॉम्पटीशन करते हैं और इन्हें नुकसान पहुंचाते हैं। लेकिन अगर हम अपने Traditional Culture की ओर देखते हैं तो हम पाते हैं कि, इन घासों का उपयोग हमारे घर के खाने में होता था, सिर्फ इसलिए नहीं कि, ये खाने योग्य है बल्कि इसलिए क्योंकि इनका औषधीय गुण है जो कई रोगों में फायदा देता है।

2019 में शुरू हुई Sarjapur Curries

सुरेश बताते हैं कि, उन्हें याद है कि, उनकी मां और चाची कुछ अलग तरह के पत्ते, करी बनाते समय उसमे डालते थे जो उसे और टेस्टी बना देती थी। लेकिन मां के गुजरने के बाद खाने की जिम्मेदारी उनके पापा के ऊपर आ गई और वे बाहर के काम से ज्यादा घर में वक़्त देने लगे। सुरेश की माने तो यह वो समय था जब उन्होंने घास को लेकर शोध करना शुरू किया था और इस दौरान उन्हें पता लगने लगा कि इनका खाने के रूप में अब उपयोग कम होता जा रहा है। इस बात को उन्होंने बंगलुरू के अपने बागवानी करने वाले साथियों के संग साझा किया। लेकिन वे यहीं नहीं रुके, वे अपने पैतृक गांव में कई बार गए, उन्हें यह बात पता थी कि, गांव में आज भी पुरानी चीजें कहानियों के रूप में जीवित हैं। लेकिन कई सालों तक गांव में जाने के बाद उनको लगा कि, आधुनिकरण के कारण अब गांव से भी घासों को उपयोग में लाने का ज्ञान खत्म हो गया है। खाने योग्य खरपतवार अब पहले की तरह उपयोग में नहीं लाए जाते।

ऐसे में सुरेश को जरूरत महसूस हुई इस पुराने ज्ञान को फिर से रिवाइव करने की। उन्होंने गांव के कुछ लोगों को इकठ्ठा कर पहले दक्षिण बेंगलुरु के अपने घर में स्थित 800 वर्ग फुट के टेरेस गार्डन का विजिट करवाया, फिर इनके लिए एक पॉवरपॉइंट प्रेंजटेशन तैयार कर इस बारे में जागरूक किया। उन्हें इस दौरान यह भी महसूस हुआ कि, पूरी कम्युनिटी को इस बारे में बताने के लिए उन्हें एक जगह की जरूरत है, जहां लोग आकर इस बारे में पढ़े और इसे जाने। यह तलाश गांव के ही कम्युनिटी सेंटर पर का खत्म हुई जो 2000 वर्ग फीट में फैला था। वहीं सुरेश जो पहले से अपने टेरेस गार्डन के लिए फेमस थे, उन्हें इसका फायदा मिला और उन्हें बैंगलोर सस्टेनेबिलिटी फोरम द्वारा आयोजित iod अर्बन बायोडायवर्सिटी रिट्रीट में अपना आइडिया रखने का मौका मिला। वे बताते हैं कि, उन्हें मेरा प्लान पसंद आया और उनकी तरफ से मिली 5 लाख रुपए से ‘ Sarjapur Curries’ की शुरूवात हुई।

इस अनुदान ने उनके काम को व्यवस्थित करने में उनकी मदद की। आज सुरेश अपने गांव के लोगों के संग मिलकर 15 से ज्यादा खाने योग्य खरपतवारों/घासों को फिर से रिवाइव करने में सफल हुए हैं। वहीं उन्होंने 6से ज्यादा प्रकार के जंगली सब्जियों को भी फिर से जीवित किया है। उनके इस काम में एक स्थानीय महिलाओं का सेल्फ हेल्प ग्रुप भी शुरू से लगा हुआ है। जो अपने घरों में इन खाने योग्य घासो को उगाते हैं और इसे खाने में भी उपयोग करते हैं। सुरेश ने इसके अलावा एक सीड बैंक भी बनाया है, जहां उन्होंने 25 से ज्यादा प्रकार की जंगली घासों के बीजों को संरक्षित किया है।

Sarjapura Curries

एक आर्टिस्ट होने के संग ही एक जुनूनी गार्डनर हैं सुरेश

सुरेश पेशे से विजुअल आर्टिस्ट हैं। इसके आलावा वो कई जगहों पर आर्ट पढ़ाते भी हैं। वो कई सारे स्मॉल टाइम कम्युनिटी से जुड़े हैं वहीं बंगलुरू स्कूल ऑफ विजुअल आर्ट्स, सृष्टि इस्टिट्यूट ऑफ आर्ट , डिजाइन, टेक्नोलॉजी एंड चित्रकला में विजिटिंग फैकल्टी भी हैं। लेकिन इस सब के बावजूद जब बात गार्डेनिंग से आती है तो इसके लिए उनका एक अलग पैशन दिखता है। 2017 में हीं उन्होंने खुद से जंगली सब्जियां जैसे कि, इव लौकी, तुर्की जामुन को मिर्ची, टमाटर, आदि के संग उगाना शुरू कर दिया था। वे जंगली घासों को लेकर कई शहरी गर्डेनरों से मिल कर इनकी बीजे संरक्षित करने पर जोर देते।

सुरेश मानते हैं कि, इन घासों को उगाने और इन्हे यूज करने के कल्चर के रिवाइव होने से जमीन को काफी फायदा हुआ है। इससे एक सिंगल फसल उगाने की परंपरा खत्म हुई है, घास खराब नहीं माने जाते इसलिए अब पेस्टीसाइड्स और हर्बिसाइड के प्रयोग कम हुए हैं। वे बताते हैं कि, पहले गांव के लोग इन केमिकल्स का प्रयोग सांपो से और अन्य जीवों से फसल को बचाने के लिए किया करते थे। जिससे मिट्टी भी खराब हुई। सुरेश ने जब कम्युनिटी गार्डेनिंग शुरू की तो वो सुखी झील की मिट्ठी को अपने फार्म तक ले आए, फिर इसमें पीट कोयला मिलाया, इरिगेशन के लिए स्प्रिंकल और ड्रिप सिस्टम को अप्लाई किया और साथ हीं भेड़ों के वेस्ट को इस मिट्टी से मिलाया।

ये पूरा ताम झाम इसलिए किया गया ताकि केमिकल से बर्बाद हुई मिट्टी अपनी उर्वरता को फिर से रीगैन कर सके। अपनी गार्डन की जमीन को कीड़ों से बचाने के लिए उन्होंने नेचुरल प्रोडक्ट से ‘ जीवरामारूथा ‘ तैयार किया। इसके आलावा उनके गार्डन में एक और मस्त चीज देखने को मिलती है आप इसे सर्कुलर पिरामिड कग सकते हैं। ये एक तरह की वर्टिकल फार्मिंग है जिसमें सीमेंट या टेराकोटा की सर्कुलर बाउंड्री होती है और एक के ऊपर एक फ्लोर होता है। जिसमें मिट्टी भारी होती है, इस सीढ़ी नुमा गार्डेनिंग से फायदा ये होता है कि, गार्डेनिंग के लिए जगह ज्यादा हो जाती है।

घासों की Dish Recipes का कलेक्शन भी होता है

सुरेश के प्रोजेक्ट Sarjapur Curries आज ग्रामीण और शहरी गार्डेनर के लिए मीटिंग प्वाइंट बन गया है। जहां दोनों का आपसी इंटरेक्शन हो पाता है। वहीं जो खाने योग्य खरपतवार मार्केट में नहीं उपलब्ध हो पाता उसके बारे में लोग यहां से जानकारी लेकर खुद से अपने घर पर उगाते है। यहां आने वाले लोग बताते हैं कि, उन्हें न सिर्फ खाने योग्य घासों के बारे में जानकारी मिलती है, बल्कि उसे बनाने की विधि भी वे यहां से सीखते हैं। Sarjapur Curries के वर्कशॉप्स में पिछले एक साल से कई तरह कि रेसिपीज लोगों के बीच पहुंची है।

वहीं सुरेश खुद से इस पूरी रेसिपी को एक फाइल में सहेजने के काम में जुटे हैं, ताकि लोगों तक बेहतर तरीक़े से जानकारी पहुंच सके। वहीं उनका सपना है कि, गांव में एक रेस्टोरेंट खोला जाए ताकि लोगों को एक दम हरी और ताजी घासों से बनी चटनी और ग्रेवी का स्वाद मिल सके और गांव के लोगों के लिए रोजगार का एक नया मौका उपलब्ध हो सके। सुरेश की ये कोशिश काबिले तारीफ है। वो न सिर्फ भारतीय पुरातन ज्ञान को फिर से जीवित कर रहे हैं, बल्कि खेती और बागवानी के एक नए सस्टेनेबल तरीक़े से लोगों को रूबरू भी करा रहे हैं।

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