गुलामी की जंजीरों में लिपटे भारत में अनेकों ऐसे संग्राम हुए थे, जो भारत की आजादी के लिए किए गए थे. जहां एक तरफ भारत के वीर सपूत अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए देश के कई हिस्सों में स्वतंत्रता संग्राम कर रहे थे, वहीं अंग्रेजों के खिलाफ उसी समय भारतीय किसानों ने बड़ा आंदोलन शुरू किया था.
जिसे इतिहास में ‘नील विद्रोह’ के नाम से पहचाना जाता है.
किसानों के इस आंदोलन का विद्रोह इतना विकराल था की उस समय अंग्रेजीं हुकुमत को झुकना पड़ा था, जाहिर है अंग्रेजों का भारत में आने का पहला मकसद महज अपने उपनिवेशवाद को बढ़ावा देना था. यही वजह रही थी की जब से भारत में अंग्रेजों की पकड़ मजबूत हुई थी, अंग्रेजों ने यहां के किसानों को अपने अनुरूप खेती करने पर मजबूर करना शुरू कर दिया था.
Neel Vidroh: नील की खेती को मजबूर किसान-

18वीं शताब्दी के अंत तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने यहां के किसानों पर अफीम व नील की खेती को लेकर जोर देना शुरू कर दिया था. क्योंकि उस दौरान नील का सबसे ज्यादा प्रयोग ब्रिटेन में छपाई में किया जाता था.
उधर जैसे-जैसे नील की खपत ब्रिटेन में बढ़ने लगी ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में नील की खेती को बढ़ाने के लिए ठोस कदम उठाने लगी. यही वजह रही कि, बंगाल के साथ बिहार में नील की खेती यहां के किसानों को मजबूरी में शुरु करनी पड़ी, हालांकि बेहतर गुणवत्ता के चलते बंगाल की नील ने उस समय दुनिया भर के बाज़ार पर कब्जा कर लिया था.
जहां एक तरफ शुरुवाती समय में ब्रिटेन में नील आयात में भारत का हिस्सा महज 30 प्रतिशत था, वहीं 1810 आते-आते ब्रिटेन द्वारा आयात की जाने वाली नील में भारतीय नील का हिस्सा 95 प्रतिशत तक बढ़ गया था.
यही वजह रही की बढ़ते व्यापार को देखते हुए कंपनी के अधिकारी व व्यापारिक एजेंटों ने नील के उत्पादन पर अधिक पैसे लगाना शुरु कर दिया और अधिकतर ब्रिटिश अधिकारियों ने अपनी नौकरियां छोड़ कर नील के कारोबार के लिए जमीनें पट्टे पर ले ली और खुद नील के बगान लगाने शुरु कर दिए.
Neel Vidroh: नील उगाने की खातिर बढ़ने लगा किसानों पर अत्याचार-

जाहिर है, जिस समय अंग्रेजों ने नील के बगान लगाने शुरु किए, उन्हें भारतीय किसानों के साथ यहां के मजदूरों की भी जरूरत पड़ने लगी. यही वजह रही कि, अंग्रेजों ने दो तरीके से नील की खेती को बढ़ावा देना शुरू कर दिया. जहां पहले तरीके में बगान मालिक खुद अपनी जमीनों में मजदूर लगाकर नील का उत्पादन कराते थे. जिसके चलते ज़मीदारों को अपनी ज़मीन मजबूरन मजदूरों किसानों को लीज पर देनी पड़ती थी.
वहीं दूसरी तरफ बागान मालिक रैयतों के साथ किसानों से अनुबंध करार कराते थे, जिसके चलते किसानों को नील उगाने के लिए कम ब्याज दर पर नकद कर्जा मिल जाया करता था. इन कर्जदारों को कर्ज के अनुरूप अपनी जमीन के लगभग 25 प्रतिशत भाग पर नील की खेती करनी पड़ती थी.
इसके लिए बागान मालिक ही बीज का इंतज़ाम करते थे, हालांकि खेत की मिट्टी किसानों की ही तैयार करनी होती थी. साथ ही किसानों की ही अपने फसलों की देखभाल करनी पड़ती थी और आखिर में जब फसल कटाई का समय आता था तो, किसान बागान मालिकों के हाथों नील को सुपुर्द कर देते थे और फिर वही चक्र कर्जे को लेकर चलता रहता था. जिससे किसानों को आए दिन परेशानियों का सामना करना पड़ता था. क्योंकि जिस समय नील की खेती होती थी उसी समय धान की भी खेती होती थी और धीरे-धीरे एक ऐसा भी समय आ गया जिस समय किसानों को नील उगाने के लिए मारा-पीटा जाने लगा. उनसे जबरदस्ती नील की खेती कराई जाने लगी और किसान हमेशा की तरह कर्जे के तले दबते चले जा रहे थे.
किसानों को अपने खेतों के सबसे उपजाऊ जमीन पर नील की खेती करनी पड़ती थी, जबकि नील की खेती के चलते किसानों की खेतों की उपजाऊ शक्ति खत्म हो जाती थी. क्योंकि नील मिट्टी की सारी ताकत खींच लेती थी. यही वजह थी जब नील की कटाई हो जाती थी उसके बाद भी कोई भी फसल उस जमीन पर नहीं उग पाती थी.
शायद, यही वजह रही की बंगाल के किसानों ने अंग्रेजी हुकूमत से बगावत करने का फैसला लिया.
Neel Vidroh की शुरुवात-

1859 आते-आते बंगाल के हज़ारों रैयतों ने नील की खेती करने से इंकार कर दिया, हालांकि इस विद्रोह की पहली शुरुवात 1858 में ही बंगाल के नदिया जिले के गोविंदपुर गांव से हुई थी. जिसका नेतृत्व उसी गांव के स्थानिय नेता दिगम्बर विश्वास और विष्णु विश्वास ने की थी.
इन्हीं नेताओं की अगुवाई में किसानों ने नील की खेती करने से मना कर दिया था. देखते ही देखते दो सालों के अंदर ही नील खेती के खिलाफ किसानों की बगावत विद्रोह का रूप ले चुकी थी और 1860 आते-आते पूरे बंगाल में नील के प्रति विद्रोह ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे.
जैसे-जैसे किसानों को इस विद्रोह का बल मिलता रहा, उसी तरह रैयतों ने भी बागान मालिकों को लगान चुकाने से भी इंकार कर दिया था. किसान यहीं नहीं रुके किसानों का ये आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ खूनी हो गया. इस विद्रोह में जहाँ अब तक किसान ही शामिल थे, वहीं वक्त से साथ महिलाएं भी विद्रोह का हिस्सा बन गई.
किसानों ने जहां बागान मालिकों का कर देने से मना कर दिया, वहीं जो भी कर के लिए आता था, उसे वहां से पीट पीट कर भगा दिया जाता था. यही वजह रही की वक्त के साथ-साथ मजबूर ज़मीदारों ने भी किसानों का समर्थन करना शुरू कर दिया.
किसानों की एकजुटता और 1857 की क्रांति के चलते अंग्रेजों की नींव हिल चुकी थी, शायद यही वजह रही की अंग्रेज किसानों को लेकर सचेत हो चुके थे. वो किसी भी तरह से इस आंदोलन में ढिलाई नहीं बरतना चाहते थे.
Neel Vidroh: जब डरने लगी अंग्रेजी हुकुमत-

जहां एक तरफ नील को लेकर किसानों का आंदोलन दिनों दिन तेज हो रहा था वहीं अंग्रेज इस विद्रोह का शांत कराने पर तुले हुए थे और आखिरकार मजिस्ट्रेट ने नोटिस जारी किया कि रैयतों को नील के अनुबंध मानने पर अब मजबूर नहीं किया जाएगा. इस घोषणा के बाद लोगों में खबर फ़ैल गई कि रानी विक्टोरिया ने अब नील की खेती न करने का फरमान जारी कर दिया है, जिससे स्थिति और बिगड़ गई.
इस दौरान इस विद्रोह में कलकत्ता के पढ़े लिखे लोगों से लेकर पत्रकारों के समूह तक नील वाले शहरों की तरफ जाने लगे और बागान मालिकों के द्वारा किसानों पर किए गए अत्याचारों को लेखक खुले तौर अखबारों की सुर्खियों में लिखने लगे.
यही वजह रही की बागान मालिकों की रक्षा के लिए अंग्रेजों को सेना की जरुरत तक पड़ने लगी. वही दूसरी तरफ इस पूरे मामले की जाँच के लिए नील आयोग का गठन किया गया और नील आयोग ने अपनी रिपोर्ट में पाया की बागान मालिकों ने रैयतों के साथ बुरा बर्ताव किया है. साथ ही उन्होंने कहा कि किसानों के लिए नील की खेती घाटे का सौदा है और किसानों को नील उगाने को लेकर उनकी मर्जी पर छोड़ दिया गया.
यही वजह रही की इस फैसले के बाद बंगाल में नील का उत्पादन धाराशाही हो गया. हालांकि अंग्रेजों ने बिहार के किसानों को तरफ अपन रुख कर लिया और वहां के किसानों को अब मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा था.
यही वजह रही की बिहार के एक किसान ने महात्मा गाँधी से मिलकर नील किसानों की दुर्दशा देख संज्ञान लेने की बात कही. जिसके बाद साल 1917 में महात्मा गाँधी ने बागानों के खिलाफ चंपारण आंदोलन की शुरुवात की थी.
तो ये थी अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ किसानों की एकजुटता की कहानी, जिसमें किसानों के विद्रोह ने अंग्रेजों को झुकने पर मजबूर कर दिया.