Maharashtra की ये महिलाएं अपना गर्भाशय क्यों निकलवा रही हैं ?

इस देश में माहवारी लंबे समय से एक टैबू बना हुआ है। हालांकि शहरी पढ़ी लिखी महिलाओं ने अब इसके ख़िलाफ़ मोर्चा खोल लिया है लेकिन ये घटना इस बात की तस्दीक करती हैं कि माहवारी से संबंधित भारत की ये समस्या अभी भी जारी है। एक तो हमारे देश में महिलाओं की महावारी हमेशा से ही चिंता और चर्चा दोनों का विषय रही है। ऐसे में काम करने वाली ग्रामीण महिलाओं के लिए ये महावारी और भी ज़्यादा मुश्किलें खड़ी करती है। क्योंकि शहर की लड़कियों की तरह उन्हें कोई पैंपर करने वाला नहीं होता ना कि आज काम पर मत जाओ, गरम पानी की बोतल पेट पर लगा लो या फिर आज तुम आराम करो। इन बेचारी महिलाओं को तो हर हाल में काम करना ही होता है। महाराष्ट्र में पिछले तीन साल में हज़ारों महिलाओं को गर्भाशय निकालने के लिए ऑपरेशन कराना पड़ा है। ऑपरेशन इसलिए कराना पड़ा ताकि उन्हें गन्ने के खेत में काम मिल सके। मतलब हज़ारों महिलाएं सिर्फ और सिर्फ गरीबी के चलते अपना गर्भाशय निकलवा रही हैं। ये संख्या अच्छी खासी है। हर साल अक्टूबर से मार्च के बीच 80 प्रतिशत ग्रामीण गन्ने के खेतों में काम करने के लिए पलायन कर जाते हैं।

Maharashtra में पैसों की खातिर महिलाओं का स्वास्थ्य खतरे में

हर साल सोलापुर, सांगली, उस्मानाबाद, बीड़ जैसे ज़िलों से दसियों हज़ार ग़रीब परिवार पश्चिमी इलाक़े में आते हैं ताकि उन्हें गन्ने के खेतों में छह महीने के लिए काम मिल सके। फिर जब ये मजबूर ग्रामीण वहां पहुंचते हैं तो उसके बाद उनकी ज़िंदगी उन लालची ठेकेदारों के हाथ में होती है जो उनका शोषण करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। या कह सकते हैं कि वो इनका जानबूझकर शोषण करते हैं। इसका सबसे ज़्यादा शिकार होती हैं महिलाएं जो ग़रीब परिवारों से आती हैं और शिक्षित भी नहीं होती हैं, उनपर ऐसा रास्ता चुनने का दवाब डाला जाता है जो उनकी ज़िंदगी और सेहत दोनों के लिए बहुत ज़्यादा खतरनाक होता है। दरअसल गन्ना कटाई में बहुत ज़्यादा मेहनत लगती है। ऊपर से काम की जगह पर रहने के हालात बहुत बुरे होते हैं। परिवारों को खेत के पास बनी झोपड़ी या टेंटों में रहना पड़ता है, जहां कोई टॉयलेट नहीं होता और तो और कभी कभी रात में भी गन्ने की कटाई होती है तो इन लोगों के सोने उठने का भी कोई टाइम नहीं होता है। ऐसे में पुरुष तो फिर भी इस काम को झेल लेते हैं मगर जब महिलाएं माहवारी में होती हैं, ये उनके लिए और कठिन हो जाता है। इसलिए महिलाएं माहवारी के दिनों में एक या दो दिन के लिए काम पर नहीं आती हैं। और ऐसे में अगर उनसे एक दिन का काम भी छूट जाए तो उन्हें जुर्माना भरना पड़ता है ऊपर से मालिक की डांट खानी पड़ती है और भारी ज़िल्लत उठानी पड़ती है। गन्ने की कटाई करने आए पति और पत्नी को एक यूनिट माना जाता है। अगर दोनों में से कोई एक भी छुट्टी लेता है तो कॉन्ट्रैक्टर को 500 रुपये जुर्माना चुकाना पड़ता है। यही नहीं ऐसी जगह साफ़ सफ़ाई तो होती है नहीं इसलिए ज़्यादातर महिलाओं को वजाइनल मतलब योनि में इन्फेक्शन हो जाता है। जब ये महिलाएं आस पास के इलाकों के झोलाछाप डॉक्टर्स के पास जाती हैं तो वो लालची डॉक्टर इन्हे ऑपरेशन करवाने के लिए कहते हैं चाहे फिर वो दिक्कत दवा से ही क्यों ना ठीक हो सकती हो। डॉक्टर ये तो कह देते हैं कि गर्भाशय निकलवा लो मगर वो महिलाओं को गर्भाशय निकलवाने के बाद जो परेशानियां आती हैं उसके बारे में नहीं बताते। इसलिए गांव में रहने वाली ज़्यादातर भोली भाली महिलाओं को यही लगता है कि गर्भाशय से छुटकारा पाना ही ठीक है। क्योंकि महिलाओं और उनके पतियों को लगता है कि पीरियड्स की वजह से काम प्रभावित होता है और उन पर जुर्माना लगता है। कई कई बार तो काम भी नहीं मिलता इसलिए ज़्यादातर महिलाएं गर्भाशय से छुटकारा पाने को ही सबसे आसान तरीका मानती हैं। वैसे भी गांव में 30 की उम्र पार करते करते हर महिला के कम से कम दो या तीन बच्चे तो हो ही चुके होते हैं इसलिए उन्हें गर्भाशय निकलवाने में कोई दिक्कत भी नहीं होती। वहीं जिन महिलाओं को ये सर्जरी करानी होती है वो कॉन्ट्रैक्टर से ही एडवान्स में पैसे लेती हैं और धीरे-धीरे अपनी दिहाड़ी से कटवाती रहती हैं। इसकी वजह से सैंकड़ों गांव “गर्भाशय विहीन महिलाओं के गांव” में तब्दील होते जा रहे हैं।

Maharashtra में ग्रामीण महिलाएं गरीबी से मजबूर

महाराष्ट्र की ही अगर बात करें तो पिछले तीन सालों में केवल बीड़ में ही 4,605 महिलाओं के गर्भाशय निकाले गए हैं। इस गांव में आधी महिलाएं ऐसी थीं जिनका गर्भाशय निकाला जा चुका था, इनमें अधिकांश 40 साल से कम उम्र की थीं और कुछ की उम्र 30 से भी कम थी। इनमें से ज़्यादातर महिलाओं की ऑप्रेशन के बाद उलटा तबियत और भी ज़्यादा बिगड़ गई है। महिलाएं गर्दन, पीठ और घुटने में लागातर दर्द से परेशान रहती हैं। यही नहीं जब वो सुबह उठती है तो उनके हाथ, पैर और चेहरे पर सूजन रहती है। कुछ महिलाओं को ऑप्रेशन के बाद चक्कर आने लगे हैं। इन्ही में से कुछ महिलाएं तो ऐसी हैं जो थोड़ी दूर तक भी पैदल अब नहीं चल पाती है। इस वजह से जिन महिलाओं ने खेतों में काम करने की वजह से ये ऑप्रेशन करवाया है उनका शरीर अब खेतों में ही काम करने लायक नहीं बचा। अब ऐसे में कई ग्रामीण महिलाएं काम ही नहीं कर पा रही हैं जिससे वो पति के साथ हाथ नहीं बंटा पा रही हैं और इस वजह से उनका खाने का खर्चा भी ठीक से नहीं निकल पा रहा है। ये महिलाएं ना अब पैसे कमा पा रही हैं और ना ही अपने घर में स्वस्थ्य जीवन बिता पा रही है। क्योंकि इन महिलाओं के पास किसी अच्छे अस्पताल में इलाज करवाने तक के लिए पैसे नहीं हैं।

सरकारें आती हैं जाती हैं इसी तरह वादे भी नए पुराने होते चले जाते हैं। मगर यहां बात सरकार से कहीं ज़्यादा महिलाओं के स्वास्थ्य की है। आज जब ये ख़बर मीडिया में चल रही है। दूर दूर गांव तक ये ख़बर फ़ैल रही है तो ऐसा कैसे हो सकता है कि सरकार इस बारे में बिलकुल अनजान है। जैसे उन्हें कुछ पता ही नहीं है। इतनी बड़ी बात पता चलने के बाद भी आख़िर सरकार इन महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति इतनी लापरवाही कैसे बरत सकती है। एक तो वैसे ही भारत में नौकरियों में महिलाओं की हिस्सेदारी घटी है। साल 2005-06 के बीच जहां इनकी हिस्सेदारी 36% थी वहीं 2015-16 में ये घटकर 25.8% रह गई।

इंडोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया और कुछ अन्य देशों में माहवारी के दौरान महिलाओं को एक दिन की छुट्टी दी जाती है। ये छुट्टी महिलाओं को काफ़ी सुविधाएं मिलने के बाद भी दी जाती हैं और सोचिए हमारे देश में छुट्टी तो दूर की बात है महिलाओं के लिए साफ़ शौचालय तक नहीं होते हैं। कई जगह तो महिलाओं को शौचालय तक नसीब नहीं होते हैं।

हालांकि राष्ट्रीय महिला आयोग ने महाराष्ट्र के मुख्य सचिव को नोटिस जारी किया है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने महाराष्ट्र के मुख्य सचिव को नोटिस जारी कर कहा कि जिम्मेदार लोगों को गिरफ्तार करने के लिए कानूनी कार्रवाई शुरू करें, ताकि महिलाएं इस तरह के उत्पीड़न से बच सकें। खैर जब तक सरकार महाराष्ट्र में इन ग्रामीण महिलाओं के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाती है तब तक महाराष्ट्र के गन्ना के खेतों में काम करने वाली महिलाएं अपने ठेकेदारों के रहमो करम पर ही रहेंगी और शोषण का शिकार होती रहेंगी।

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