पिता एक शब्द नहीं. एक संसार की कल्पना है. एक छत है. घर का निर्माण कभी महज़ दीवार बना लेने से नहीं होता. उसे जरुरत होती है एक छत की अगर आज हम कहें कि, पिता ठीक वही छत है. जिसके आगोस में हम रहकर धूप, बारिश, जाड़ा, आंधी-तूफान सबसे बचते हैं तो यह कहना शायद गलत नहीं होगा. हम कई कहानियां, कई दास्तां माता पिता से जोड़कर सुनी और सुनाई होगीं.
इस कोरोना महामारी में हमने अपने सोशल मीडिया के दौरान भी अनेकों कहानियां ठीक उसी तरह से शेयर भी की होगीं. हालांकि आज हम जिस घटना के बारे में आपको बताने जा रहे हैं. वो घटना इन सबसे अलग है. यह कहानी बताती है कि, एक पिता अपनी औलाद के लिए कितना कुछ कर सकती है. यह कहानी बताती है कि, एक पिता का होना उसकी औलाद के लिए कितनी अहमियत रखता है.
यह दास्तां है. कर्नाटक के मैसू जिले के कोप्पलू गांव की. जहां इस महामारी में एक पिता ने अपनी औलाद की खातिर वो कर दिखाया. जिसकी शायद ही जल्द कोई कल्पना करे. आज कोरोना वायरस की दूसरी लहर से पीड़ित भारत में जहां हर तरफ लॉकडाउन लगा हुआ है. वहीं अनेकों लोग ऐसे हैं. जिनकी रोज़ी रोटी तक बंद हो गई है. कोप्पलू गांव में रहने वाले आनंद उन्हीं में से एक हैं. 45 साल के आंनद एक गरीब परिवार से आते हैं.

बेटा अक्सर बीमार रहता है. यही वजह है कि, बेटे का इलाज़ पिछले 10 सालों से बेंगलुरु के निमहंस अस्पताल में चल रहा है. जहां डॉक्टर आनंद के बेटे को दो-दो महीनों की दवाइयों का स्लाट दे देते हैं. ताकि उन्हें कोई दिक्कत परेशानी न हो. वह घर पर रहकर वक्त-वक्त पर अपने बेटे को दवाइयां खिला सकें. इस दौरान दवाइयां खत्म होने पर आनंद और उनका बेटा बेगलुरु के निमहंस अस्पताल आकर चेकअप कराकर फिर दवाइयां ले जाते थे.
हालांकि कोरोना वायरस की दूसरी लहर के बाद जहां पूरे देश में लगे लॉकडाउन ने जहां सब कुछ बंद कर दिया. दूसरी ओर आनंद के बेटे की दवाइयां खत्म होने को थी. जबकि डॉक्टर का कहना है कि, “बच्चा जब तक 18 साल का नहीं हो जाता. तब तक उसकी दवाइयां यूं ही चलती रहेंगी. ताकि मिर्गी के दौरों पर काबू पाया जा सके.”
जी हाँ, आनंद के बेटे को मिर्गी के दौरे पड़ते हैं. शायद एक पिता होने के नाते आनंद अपने बेटे का दर्द भी समझ सकते हैं. हालांकि राज्य में चल रहे लॉकडाउन के चलते न तो उन्हें कोई साधन मिल सका. जिससे वो बेगलुरु पहुंचकर बेटे की दवाइयां ला सकें. न ही कोई उपाय मिल सका. मजबूर पिता ने फिर हिम्मत बांधी और अपनी पुरानी साइकिल से ही बेगंलुरु आने का दृढ़ निश्चय कर लिया.
आनंद 23 मई को कोप्पलू गांव से सुबह के वक्त ही अस्पताल जाने के लिए निकल गए. फिर इसके बाद दवाइयों के साथ 26 मई को वापस लौटे. इन तीनों के सफर में उन्होंने 300 किलोमीटर से ज्यादा का रास्ता तय किया और अपने बेटे की खत्म होती दवाइयों को समय रहते फिर से ले आए. इस बात की खबर जब वहां के डॉक्टरों को लगी तो, उन्होंने आनंद की हिम्मत को सलाम करते हुए उन्हें एक हज़ार रुपये दिए.
हालांकि आनंद को मालूम था कि, उन्हों उस सलाम से ज्यादा उन दवाइयों की जरुरत है. जिससे अपने बेटे के दर्द को कम किया जा सके. आनंद के बेटे के अलावा उनकी एक बेटी भी है. जो जिसने बताया कि, “बाबा साइकिल चलाकर गए-आए उनकी कमर में काफी दर्द हो रहा था. हालांकि उन्होंने डॉक्टर से दवाई ले ली है. अभी वो ठीक हैं और भईया भी.”

ज़ाहिर है, 300 किलोमीटर का सफर तय करना किसी भी गाड़ी से ज्यादा मुश्किल नहीं. हालांकि साइकिल से 300 किलोमीटर का सफर करना मुश्किलात भरा जरुर लगता है. तब जब कोरोना जैसी महामारी के बीच सब कुछ बंद हो. कहीं सड़कों पर न ठीक से कुछ खाने का हो न पीने का.
आज आनंद के जज्बे को हर कोई सलाम कर रहा है. सोशल मीडिया पर लोग उनकी हिम्मत की ताऱीफ कर रहे हैं. और इसके उलट स्थानिय नेता अपनी दाल गला रहे हैं.
खैर नेताओं का काम ही यही है. पहले वोट मांगना, फिर जनता को पांच साल तक भूल जाना. हाँ मगर मौका मिले यदा कदा तो पहुंचकर अपनी ही तरफदारी करवा लेना.
The Indianness इस पिता को सलाम करता है.