11 फरवरी, यूनाइटेड नेशन की ओर से ‘इंटरनेशनल डे ऑफ वुमेन एंड गर्ल्स इन साइंस’ के रुप में मनाया जाता है। इस दिन को सेलिब्रेट करने से मतलब यह है कि, महिलाओं की भागीदारी को साइंस के क्षेत्र में बढ़ाया जा सके। इस क्षेत्र में उनकी भागीदारी को लेकर जेंडर कोई रोड़ा न बने। यूएन इसके लिए कई गोल्स पर काम कर रहा है और इन सब को मिलाकर उसने 2030 तक ‘संस्टेनेबल डेवलपमेंट’ का टारगेट सेट किया है। यूएन के अध्यक्ष एन्टोनियो गुतरेज़ इस बारे में कहते हैं
21वीं सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए, हमें अपनी पूरी क्षमता का का इस्तेमाल करना होगा, जिसके लिए जरूरी है कि, लैंगिक असमानताओं को खत्म किया जाए। इस दिन हम सभी को विज्ञान में लैंगिक असमानता को समाप्त करने का संकल्प लेना चाहिए।’
Women and Girls in Science – महिलाओं को अभी और लंबा सफर तय करना है
बात भारत की करें तो यूं तो हमारे यहां हर क्षेत्र में लगभग लैंगिक असमानता है। लेकिन विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में यह कुछ ज्यादा ही गहरी है। देश के प्रमुख शोध संस्थानों के शीर्ष पदों पर महिलाओं की तादाद अंगुलियों पर गिनी जाने लायक है। लेकिन पिछले कुछ सालों में इसमें कई बदलाव देखने को मिले हैं। लेकिन आज भी साइंस के सेक्टर में हमारे देश में महिलाओं की जो पोजिशन है उसके लिए उन्हें लंबा सफर तय करना पड़ा है। कई महिलाएं विज्ञान और तकनीक के क्षेत्रों में लैंगिक असमानता का अहम कारण सरकार की नीतियों और समाज की पुरुष-प्रधान मानसिकता को बदले बिना इस खाई को पाटने की कोशिश को मानती हैं। आयोजित इंडियन फिजिक्स एसोसिएशन (आईपीए) के जेंडर इन फिजिक्स वर्किंग ग्रुप की पहली बैठक में लैंगिक असमानता पर कई चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए थे।

साल 1999 में ही वुमेन इन फिजिक्स वर्किंग ग्रुप का गठन इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड एप्लायड फिजिक्स ने कर दिया था। जिसके तहत साल 2002 से हर तीन साल पर भौतिकी में महिलाओं के मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय सेमिनार और वर्कशाप आयोजित होते हैं। इन वर्कशॉप में लैंगिक असमानता पर भी बहुत चर्चाएं होती हैं। लेकिन बावजूद इसके हालातों में ज्यादा बदलाव नहीं आएं हैं। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि, कई सारे सेक्टरों में आधी आबादी की भागीदारी आधी भी नहीं है। देश के शीर्ष शिक्षा व शोध संस्थानों की बात कर लें तो यहां की फैकल्टियों में महज 20 फीसदी ही महिलाएं हैं। केंद्र सरकार की आर्थिक सहायता पर चलने वाले संस्थानों की गवर्निंग काउंसिल में भी महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। इसमें 83 पुरुषों के मुकाबले महज तीन महिलाएं ही काम करती हुई दिखतीं हैं।
भारत में महिलाएं पुरूषों के मुकाबले अब ग्रेजुएशन में बराबरी पर हैं। या कह लें कि, पढ़ाई के मामले में लड़कियां लड़कों से आगे निकल गईं हैं लेकिन अभी भी वे इससे आगे शोध ओर विज्ञान के कामों में ज्यादा नहीं आ रही हैं। मुंबई स्थित शीर्ष विज्ञान संस्थान टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च में फिजिक्स डिपार्टमेंट में अगर 30 छात्र पी.एच.डी के लिए दाखिला लेते हैं तो उसमें औसतन 2 ही महिला होती है। मतलब साफ है कि, ग्रेजुएशन तक तो महिलाएं पढ़ाई कर रही है लेकिन या तो वे इससे आगे जा नहीं पाती या उनमें शोध विषयों को लेकर इंट्रेस्ट नहीं जग पाता है। लेकिन कुछ महिलाएं इसके लिए वैज्ञानिक संस्थानों की संस्कृति को लेकर सवाल उठाती है और उसे महिलाओं के प्रवेश के लिए ज्यादा अनुकूल नहीं मानती। यहीं कारण है कि, इस क्षेत्र में महिलाओं की तादाद लगातार घटती जा रही है।
Women and Girls in Science – ग्रेजुएशन से आगे महिलाएं क्यों नहीं बढ़ रहीं?
हाल ही में बजट पेश करने के दौरान वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस बात को लेकर खुशी जाहिर की थी। देश में लड़कियों की साक्षरता दर प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च स्तर पर लड़कों से ज्यादा हो गई है। लेकिन विज्ञान और शोध के विषय पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। जाहिर है कि, सरकार का ध्यान भी इस ओर ज्यादा सिरियसली नहीं है। लेकिन महिलाएं भी अपने स्तर पर शोध कार्यो में जा नहीं पाती और इसके कई बड़ीं वज़हें हैं। इसमें से सबसे बड़ा कारण है महिला छात्रों के संग होने वाला यौन उत्पीड़न। ज्यादात्तर महिलाएं इसी एक कारण के चलते ग्रेजुएशन के आगे जाने से डरती हैं या उनका परिवार भी इसी कारण उन्हें आगे बढ़ने से रोकता है।
इसके अलावा इस क्षेत्र में पुरूषों की प्रधानता होने के कारण महिलाओं को कम आंका जाता है। यह फिलॉसफी चलती है कि ‘महिलांए इस काम को नहीं कर सकती, महिलाओं की क्षमता पर बार-बार सवाल उठाए जाते हैं और कम अहमियत वाले पदों पर ही उन्हें रखा जाता है। कई एक्सपर्ट मानते हैं कि ऐसे संस्थानों में यौन उत्पीड़न की घटनाएं आम हैं, लेकिन बदनामी व करियर की वजह से ज्यादातर घटनाएं दब जाती हैं। वहीं महिलाएं आवाज उठाने के बजाए चुपचाप करियर ही बदल देती हैं। ऐसी घटनाओं की वजह से विज्ञान व शोध संस्थानों की छवि नकारात्मक बन गई है।
एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी ऑफ इंडिया (एएसआई) ने अब लैंगिक भेदभाव को अपने एजेंडे में शामिल कर एक साहसिक कदम उठाया है। हालांकि कुछ साल पहले गठित लैंगिक समानता पर कार्यकारी समूह ने देश में खगोल विज्ञान के क्षेत्र में लैंगिक समानता पर अपने पहले सर्वेक्षण में इस बात को माना कि, खगोल विज्ञान और खगोल भौतिकी की पढ़ाई व शोध वाले संस्थानों लैंगिक भेदभाव बहुत ज्यादा है। ऐसी जगहों पर सिर्फ छात्राएं नहीं बल्कि महिला प्रोफेसरों की तादाद भी नगण्य है।

क्या करना जरूरी है?
विज्ञान व तकनीक के क्षेत्र में देश में लंबे अरसे से उच्च तबके के लोगों का वर्चस्व रहा है। कई लोग ऐसा मानते हैं कि ज्यादातर वैज्ञानिक उच्च जाति के हैं, ऐसे में महिलाओं का खासकर निचले तबके की शोध छात्राओं के संग भेदभाव होता है। कई लोग जब जाति के सवाल उठाते हैं तो मेरिट का हवाला दिया जाता है। देश में वैज्ञानिकों को मिलने वाला शीर्ष शांति स्वरूप भटनागर अवार्ड की बात करें तो शुरुआत से अब तक 517 पुरुषों को मिला है लेकिन यह अवार्ड पाने वालों में महज 16 महिलाएं हैं। यानि प्रोत्साहन के मामले में भी सरकार की ओर से समानता नहीं दिखती।
विशेषज्ञ मानते हैं कि, महिलाएं सभी चीजों में पुरूषों के सामान होती भी हैं तो उनका सिलेक्शन समितियां उस हिसाब से नहीं करती जिस तरीके से होना चाहिए। ऐसे में इस क्षेत्र में लैंगिक खाई को पाटने के लिए भारतीय संस्थानों को सिलेक्शन के दौरान वरिष्ठ पदों पर महिलाओं की तादाद बढ़ाने की नीति को अपनाना चाहिए। वहीं विज्ञान तकनीक के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने के लिए सांकेतिक प्रयासों से आगे बढ़ कर इस दिशा में ठोस पहल करना जरूरी है। संस्थानों को यह तय करना होगा कि, 10 लोगों के ग्रुप में कम से कम 3 महिलाएं तो जरूर हों। वहीं शोषण जैसी चीज़ों से बचने के लिए भी सरकारों और संस्थानों को अपने—अपने स्तर पर कड़े रुख अपनाने होंगे ताकि लड़कियों के परिवार वालों में शोध कार्यों में अपने बच्चों को भेजते वक्त कोई डर या आशंका न हो।