हमारे इतिहास की किताबों में राज पाठ चलाने वाली महिलाओं के बारे में ज्यादा कुछ पढ़ने को नहीं मिलता, या यूं कहें तो पढ़ाया नहीं जाता। इतिहास की किताब में महिला शिक्षक के नाम पर केवल एक महिला का जिक्र मिलता है ‘ रजिया सुल्ताना’. इसके अलावा किसी का जिक्र शायद नहीं है। आप चाहें तो एनसीईआरटी की किताब खोलकर देख सकते हैं। लेकिन इसका मतलब क्या ये है कि भारत में महिला शासकों की कमी थी? जवाब है नहीं….. भारत के इतिहास में ऐसी कई महिला शासक हुई हैं जिन्होंने मिशाल कायम की है। आज हम ऐसी ही एक महिला शासक के बारे में आपको बताने जा रहे हैं जिन्हे ‘ दिलों की रानी ‘ कहा जाता था। ये महिला शासक अपनी जनता के दिलों पर राज करती थी। जिनका नाम था अहिल्या बाई होलकर।
कौन थी अहिल्याबाई होलकर

अहमदनगर के जामखेड में चोंडी गांव में जन्मी महारानी अहिल्याबाई मालवा राज्य की होलकर रानी थी, जिन्हें उनकी जनता प्यार से राजमाता अहिल्याबाई होलकर बुलाती थी। आमतौर पर राजघराने की महिला का इतिहास भी किसी राजघराने से जुड़ा होता था, लेकिन अहिल्याबाई के संग ऐसा नहीं था। वो राजघराने से नहीं थी, लेकिन नियति उन्हें राजघराने तक ले गई। उस दौर में जब महिलाओं की शिक्षा को लेकर उतना जोर नहीं दिया जाता था, उनके पिता मनकोजी राव शिंदे ने उन्हें पढ़ने लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने इसके लिए घर में ही शिक्षक की व्यवस्था करवाई।
अहिल्या बाई बचपन से ही दयालू और गरीबों के प्रति हमदर्दी रखने वाली स्वभाव की थी। एक बार मालवा राज्य के राजा या पेशवा मल्हार राव होलकर पुणे की ओर जा रहे थे। बीच में उन्होंने अपना पड़ाव चोंडी गांव में डाला। इसी दौरान उनकी नजर अहिल्या पर पड़ी जो गरीबों को उस समय खाना खिला रहीं थी। इस उम्र में भी लोगों के लिए रानी के अंदर का स्वभाव देख राजा खुश हुए और उन्होंने अहिल्या का रिश्ता अपने बेटे खंडेराव होलकर के लिए मांग लिया। जब ये शादी हुई तब अहिल्या बाई की उम्र केवल 8 साल थी।
शादी के बाद का एक दशक तो अच्छा बीता लेकिन इसके बाद रानी की जिंदगी पर दुखों के अंधेरे बादल छा गए। 1753 में कुम्भार कि लड़ाई में खांडेराव वीरगति को प्राप्त हो गए। 21 साल की उम्र में रानी विधवा हो गई। उस समय कुछ महिलाएं पति की चिता के संग सती हो जाती थी। रानी अहिल्या बाई भी सती होना चाहती थी, लेकिन पिता सामान उनके ससुर ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। उनके ससुर उनके संग हर परिस्थिति में साथ खड़े रहे, लेकिन 1766 में जब उनके ससुर की भी मौत हो गई तब रानी की जिंदगी कि असल चुनौतियां शुरू हुई, जिसे पार कर उन्होंने एक संपन्न और सुखी राज्य कि स्थापना कि।
जब रानी अहिल्याबाई होलकर ने संभाला राजपाट

ससुर की मौत के बाद अहिल्याबाई के बेटे मलेराव होलकर ने शासन संभाला लेकिन शासन के कुछ ही दिन हुए थे कि 1767 में मालेराव की मौत हो गई। आप और हम कल्पना कर सकते हैं कि किसी भी महिला पर तब क्या बीतती है, जब उसका पति, बाप जैसा ससुर और बेटा तीनों एक के बाद एक कर काल के गाल में समा जाएं। अहिल्याबाई पर उस समय दुखों का पहाड़ टूटा था, लेकिन दूसरी तरह एक रानी होने के नाते उनके लिए अपने राज्य को बचाना भी जरूरी था। ये वो दौर था जब अंग्रेज लगातार अपने पैर पसार रहे थे। रानी ने अपने दुख का साया अपनी जनता पर नहीं पड़ने दिया।
शासन व्यवस्था को अपने हाथ में लेने के लिए उन्होंने पेसवा के समक्ष याचिका रखी। 11 दिसंबर 1967 को वो स्वयं इंदौर की शासक बन गईं, हालाकि उनके इस फैसले से राज्य में एक धड़ा ऐसा भी था जो नाराज था, लेकिन रानी ने अपनी कुशल नेतृत्व और शासन व्यवस्था से अपने विरोधियों को भी अपना मुरीद बना लिया। एक साल के अंदर ही लोगों ने देखा कि उनकी रानी उनकी रक्षा कैसे उनके राज्य में लूट पाट करने वालों से कर रही है। अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित रानी ने कई बार युद्ध में अपनी सेना का नेतृत्व खुद किया।
रानी की शासन व्यवस्था का सबसे बड़ा बदलाव था सेना को राज्य से अलग करना। रानी ने अपने विश्वासपात्र सूबेदार तुकोजीराव होलकर को अपना सेनापति बनाया था, जिनके पास सेना कि पूरी कमान थी वहीं रानी ने शासन और प्रशासन की जिम्मेदारी खुद के पास रखी थी। उन्होंने राज्य और अपने स्वयं के खर्चे को भी अलग किया यानि जो खर्चा वो खुद पर करती वो उनकी अपनी संचित धन हुआ करता और राज्य के बेहतरी के लिए खर्चा राज कोष से आता। यानि शासन व्यवस्था में उस समय उन्होंने एक अलग स्तर कि ट्रांसपेरेंसी को स्थापित किया।
रानी बचपन से धर्म को मानने वाली थी, इसलिए उन्होंने कई मंदिरों का निर्माण करवाया। जिनकी शिल्पकला उल्लेखनिए है। उनके राज्य में कला का विस्तार हुआ। देखते ही देखते एक छोटे से गांव से इंदौर एक बड़े शहर में बदल गया। इसके अलावा वे त्योहारों और मंदिरों के लिए भी दान देती थी। उनके राज्य के बाहर भी उन्होंने उत्तर में हिमालय तक घाट, कुएं और विश्राम-गृह बनाए और दक्षिण में भी तीर्थ स्थानों का निर्माण करवाया। भारतीय संस्कृतिेकोश के मुताबिक अहिल्याबाई ने अयोध्या, हरिद्वार, कांची, द्वारका, बद्रीनाथ आदि शहरों को भी सँवारने में भूमिका निभाई।
उनके 30 साल के शासन में उनकी राजधानी माहेश्वर साहित्य, संगीत, कला और उद्योग का केंद्र बिंदु थी। उन्होंने अपने राज्य के द्वार मेरठ कवि मोरोपंत, शाहिर अनंतफंदी और संस्कृत विद्यवान खुसाली राम जैसे दिग्गजों के लिए खोले। वे अपनी प्रजा को हमेशा आगे बढ़ने और अच्छा करने के लिए हौसला देती।
अंग्रेजों की तुलना भालू से की

जब मराठा साम्राज्य ढलान पर था तब अंग्रेज़ धीरे धीरे अपनी चाल चल रहे थे। वे मराठाओं से दोस्ती कर रहे थे। इस समय जब को मराठा उनके इरादों को नहीं भाप सका था तब रानी अहिल्या ने अंग्रेजों की चाल का अंदाजा लगा लिया था। उन्होंने तब पेसावा को 1772 में लिखी अपने पत्र में अंग्रेजों के मराठाओं के प्रति प्रेम को भालू के सामान बताया था। रानी अहिल्याबाई ने अपने पत्र में लिखा था
“चीते जैसे शक्तिशाली जानवर को भी अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर मारा जा सकता है पर भालू को मारना उससे भी मुश्किल है। इसे केवल सीधे उसके चेहरे पर ही मारा जा सकता है। क्योंकि अगर कोई एक बार इसकी पकड़ में आ जाये तो यह उसे गुदगुदी कर ही मार डाले। अंग्रेजों की भी कहानी ऐसी ही है इन पर विजय पाना आसान नहीं।”
रानी अहिल्याबाई की कहानी सिर्फ महिलाओं के लिए नहीं बल्कि समाज के हर तबके और हर जेंडर के लिए प्रेरणाश्रोत है। हमने कहावत तो सुनी होगी कि, हर कामयाब आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है, पर रानी अहिल्या बाई अपनी प्रजा के लिए राजमाता तीन मर्दों के कारण बनी पहले उनके पिता जिन्होंने उन्हें बेटे के बराबर का हक दिया, दूसरे उनके ससुर जिन्होंने उन्हें अपनी बेटी की तरह माना और सती होने से रोका और उनके पति जिन्होंने उन्हें सम्मान दिया। अहिल्या बाई हर उस कॉमन लड़की की तरह थीं जो कुछ अच्छी बौद्धिक क्षमता के संग जन्मी थी लेकिन उन्होंने जिंदगी में आगे आईं हर मुसीबत का सामना किया और राजमाता कहलाई।