नक्सलवाद-माओवाद का इतिहास

नक्सल, नक्सलवादी, नक्सलिज्म जब भी इन शब्दों का जिक्र कहीं भी होता है तो हमारी आंखों के सामने खून से सनी लाश, गोला-बारूद, कंधे पर बंदूक टांगे लोग आ जाते हैं. हो भी क्यों न, आज के इतने साल बाद भी हमने यही देखा है. आजादी के आज इतने साल भले ही गुजर गए हों, देश-दुनिया की नज़रों में हमने भले ही कितना विकास क्यों ने देखा हो, लेकिन आज भी नक्सलिय लोगों की लड़ाई सरकार से, संसद से जारी है.

यही लड़ाई है जो हर साल भारत में न जानें कितने आम इंसानों के साथ-साथ, अनेकों भारतीय सैनिकों की जान ले लेती है.

आज हमारे पूरे देश के 11 राज्यों के 90 जिलों में नक्सलवादी और माओवादी मौजूद हैं. जिनमें से 30 जिले तो ऐसे हैं जिनमें भारत सरकार का राज तक नहीं चलता. जहाँ नक्सलवादी की तूती चलती है. उनकी सेना का राज चलता है.

लेकिन क्या आपको मालूम है कि, आखिर ये नक्सलवादी हैं कौन? इनका इतिहास क्या है? और क्यों ये सरकार से अपना छत्तीस का आंकड़ा रखते हैं?

नक्सलवाद माओवाद

दुनिया में नक्सल वाद की शुरुवात सबसे पहले जर्मनी में हुई. जहां के नेता कार्ल मार्क्स ने इसे शुरू किया था. इन्हीं के विचारों से प्रेरित रूसी नेता ब्लादिमिरी एलिज लेनिन के ही नेतृत्व में साल 1917 में रूसी की क्रांति हुई थी. जिसमें किसानों और मजदूरों ने सत्ता से संघर्ष किया था. और तानाशाह को सत्ता से बेदखल किया था. साथ ही सत्ता हासिल कर ली.

इस दौरान ब्लादिमिरी एलिज लेनिन का साथ दिया था भारत के मानवेंद्रनाथ रॉय ने, सत्ता में आने के बाद लेनिन ने मानवेंद्रनाथ रॉय को कहा था कि, वो भारत में जाकर कम्यूनिटी की नींव तैयार करें. जिसके बाद मानवेंद्रनाथ रॉय ने उजबेकिस्तान की राजधानी तजाकिस्तान में साल 1920 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (Communist Party of India) (CPI) का गठन किया. लेकिन कुछ कम्युनिस्ट इसका गठन साल 1925 में मानते हैं.

ऐसे में एक ओर (CPI) के गठन के बाद जहां कम्युनिस्ट विचारधारा भारत में फैलने लगी. वहीं महात्मा गांधी से लेकर तमाम नेता देश की आजादी के लिए अंग्रेजों से लड़ रहे थे. ऐसे में जहां सबका काम आजादी था. वहीं कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया का मानना था की उनकी लड़ाई अंग्रेजों के अलावा उन जमींदारों और अमीरों से है. जो किसानों, गरीबों और मजदूरों का हक मारकर बैठे हैं.

Communist Party of India

एक ओर जहाँ आजादी के समय में नक्सवाद-कम्युनिस्ट भारत में पैर पसार रहे थे. वहीं दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया में भी बहुत कुछ बदल चुका था. भारत में तेलगांना आंदोलन के बाद बहुत कुछ बदल चुका था. एक ओर भारत में Communist Party of India में जहां दो धड़े बन गए थे. जिसमें एक धड़ा सोवियत संघ की वकालत करता था. जबकि दूसरा धड़ा चीन में साल 1949 में माओ से-तुंग को मानने लगा था. माओ से-तुंग ने सशस्त्र बल के साथ उस समय चीन में कमुनिस्ट पार्टी की नीव रखी थी. ऐसे में जहाँ भारतीय Communist Party of India का एक धड़ा चीन की वकालत कर था. वहीं एक धड़ा सोवियत संघ के साथ था.

ऐसे में जिस समय सीमा विवाद को लेकर साल 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ था. उस समय भी नक्सलवाद में दो धड़े चल रहे थे. जिसमें ई एम एस नंबूदरीपाद और श्रीपाद अमृत डांगे जैसे नेता शामिल थे. ऐसे में जिस समय चीन ने भारत पर हमला किया था. उस समय जहाँ ई एम एस नंबूरीपाद जैसे नेता चीन के समर्थन में थे तो, वहीं श्रीपाद अमृत डांगे जैसे नेता भारत के हित में बात कर रहे थे. जिसके चलते साल 1964 आते-आते Communist Party of India पार्टी टूट गई. जिससे चलते पहली बार मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी Communist Party of India (CPM) का जन्म हुआ. जहाँ से नक्सलवाद की नींव रखी गई.

ऐसे में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने की. दोनों नेता पूरी तरह से ही चीन के माओ ते-सुंग से प्रभावित थे. हालांकि जल्द ही चारू मजूदार Communist Party of India (CPM) की नीतियों का विरोध करने लगे. जिसकी वजह थी, चारू का मानना था कि, मजदूर और किसान वर्ग उन अमीरों को खत्म करें. उनसे अपना हक ले. यही वजह थी कि, वो हर जगह इसी तरह की बातों को तवज्जों दिया करते थे. यही वजह रही कि, चारू मजूमदार को साल 1966 में पार्टी से बेदखल कर दिया गया. ये सब समय तक पश्चिम बंगाल में हो रहा था.

वहीं दूसरी ओर 1967 आते-आते पश्चिम बंगाल में चुनाव होने को थे. जिसमें सबसे पहली बार भारत में कोई कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई. सत्ता में आने के तीन दिन बाद ही पूरे बंगाल में पूंजीपतियों, जमीनदारों और अमीरों के खिलाफ बगावत शुरू हो गई. किसान, मजदूर और गरीबों ने जनअदालत तक शुरू कर दी.

इस समय तक नक्सवाड़ी में किसान, मजदूर और गरीब वर्ग पूरी तरह आक्रोशित हो चुके थे. यही वजह थी कि, हर तरफ जमीनदारों के खिलाफ खूनी विद्रोह चल रहा था. इसी समय 24 मई 1967 को कानू सन्याल को गिरफ्तार करने गए पुलिस अफसर सोनम की भीड़ ने हत्या कर दी. जिसके बाद बंगाल में कई घटनाएं हुई. इस घटना के बाद एक और घटना उस समय घटी जिस समय पुलिस को महिलाओं ने घेर लिआ और पुलिस ने उन पर गोली चला दी. जिसमें ग्यारह लोगों की मौत हो गई.

ये सभी घटनाएं उस समय तक भारत ही नहीं पूरी दुनिया में फैल चुकी थी. यही वजह थी कि, नक्सवाद की नींव में माओवाद भी जुड़ गया.

जिसकी वजह थी कि, नक्सवाडी के नेता उस समय माओ को अपना सबसे बड़ा नेता मानते थे. ऐसे में जो कुछ भी भारत में हो रहा था. उसमें चीन के नेता माओ का पूरा समर्थन था.

ये वो समय था, जिस समय नक्सवाद और माओवाद पश्चिम बंगाल से निकलकर पूरे भारत में पांव पसार रहा था. उस समय उत्तर प्रदेश के लखीम पुर खीरी, बिहार के मुशहरी, श्रीकाकुलम में पूजींपतियों के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ.

ऐसे में चीन की सरकार के समर्थन में चारू मजूमदार ने 22 अप्रैल 1969 को भारत में तीसरी Communist Party of India (Marxist–Leninist) की स्थापना हुई. जिसकी जानकारी 1 मई 1969 को सबके सामने रखी गई.

ऐसे में चीनी मीडिया से लेकर चीनी सरकार ने इस पार्टी का स्वागत किया. लेकिन Communist Party of India (Marxist–Leninist) के गठन के बाद ही ये बात सबको मालूम चल गई थी कि, ये पार्टी भारत में राजनीतिक पार्टियों में से नहीं है. इस पार्टी के अगुवा चारू मजूमदार ने पार्टी के कोमरेड को हथियार बंद लोग तैयार करने की जिम्मेदारी दे दी. ताकि सत्ता से संघर्ष किया जा सके. गरीबों, मजदूरों और किसानों को उनका हक दिलाया जा सके.

इस समय चारू मजूमदार ने पार्टी में संविधान तैयार किया. जिसमें नक्सवाद का मर्डर मेन्यू तक तैयार किया गया. फरवरी 1970 में चारू मजूमदार ने अपने समर्थकों को भाषण दिया. जिसे मर्डर मेन्यूवल तक कहा गया. जिसमें उन्होंने कहा कि,

“जिसकी भी हत्या होती है. उन्हें गोली न मारी जाए. उनकी हत्या हसिया से रेत कर हो, हथौड़े से मार कर हो. हत्या इतना ख़ौफनाक होनी चाहिए की जो भी देखे उसकी रूह कांप जाए.” साथ ही उन्होंने कहा था कि, “जिस कम्युनिस्ट का हाथ खून से न रंग जाए वो सच्चा कम्युनिस्ट नहीं होगा.”

 ऐसे में पूरे बंगाल में जहां एक ओर खूनी संघर्ष शुरु हो गया. हर तरफ पूंजीपतियों, अमीरों और नेताओं को निशाना बनाया जाने लगा. लेकिन 16 जुलाई 1972 को चारू मजूमदार को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. और पुलिस कस्टडी में ही उनकी मौत हो गई. जिसके बाद नक्सली आंदोलन को दबा दिया है.

हालांकि आज की दशा को देखकर ऐसा कहना सही नहीं लगता. आज हम आजादी के इतने वर्ष आगे आ चुके हैं. फिर भी हमारे देश में नक्सलवादी संगठन, नक्सलवादी क्षेत्र कम नहीं हो सके हैं.

  • जहाँ 4 अप्रैल 2021 को भारत ने छत्तीसगढ़ के बीजापुर में लगभग अपने 24 जवान खो दिए, वहीं अनेकों जवान लापता हैं.
  • इसी तरह 28 अप्रैल 2019 को छत्तीसगढ़ के बीजापुर में नक्सली हमले में दो जवान शहीद हो गए थे.
  • छत्तीसगढ़ के ही दंतेवाडा में में 9 अप्रैल को एक बड़े नक्सली हमले में जहां चार पुलिसकर्मी शहीद हो गए थे, साथ ही बीजेपी विधायक भीमा मंडावी की हत्या हो गई थी.
  • जबकि मार्च 2018 में छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में हुए एक नक्सली हमले में सीआरपीएफ की 212वीं बटालियन के लगभग 9 जवान शहीद हो गए थे.
  •  जबकि इसी साल जून में झारखंड में हुए एक नक्सली हमले में जगुआर फोर्स के छह जवान शहीद हो गए थे.
  • साल 2017 में छत्तीसगढ़ के सुकम में खाना खाने जा रहे जवानों पर नक्सलियों ने तबाड़तोड़ गोलियां चलाई थी. जिसमें 25 जवान शहीद हो गए थे

इस तरह की लिस्ट ने जाने कितनी बड़ी है. हर साल अनेकों सैनिक और आम लोग नक्सली हमलों का शिकार होते हैं. और हम और हमारी सरकारें इसका कोई समाधान नहीं ढूंढ पाते. एक और शहादत को देखते हैं. दूसरी ओर अपने अंदर गुस्से का गुबार भरते हैं और अगले ही दिन उसे भूल जाते हैं.

नक्सलवाद आज पूरे भारत में एक नासूर बन चुका है. एक ऐसा नासूर जो न तो ठीक ही हो रहा है. न ही इसका कोई समाधान मिल पा रहा है. जरूरत है, कड़ी कार्रवाई करने की…ताकि फिर कोई सैनिक या आम इंसान बेजवजह यूँ ही अपनी जिंदगी न खो दे.

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