संत कबीरदास का नाम सुनते हमारे मन में उनके कुछ खास दोहे अपने आप उफान मारने लगते हैं। ऐसा लगता है कि, बस अभी इन दोहों को मन से निकाल कर आवाज का रूप देकर गा लिया जाए। ये दोहे या तो हमने एल्बम में सुने होते हैं या स्कूल की किताबों में पढ़े होते हैं। आज इन्हीं दोहों को रचने वाले संत कबीर दास की जयंती हैं। कहते हैं कि, आज से 622 साल पहले मध्यकालीन भारत में उनका जन्म हुआ था। उनके असली माता पिता कौन थे ये कोई नहीं जानता, कबीर नीरू और निमा नाम के एक मुस्लिम दंपति को काशी के पास के महगर के एक तालाब के पास मिले थे। नीरू और नीमा जुलाहे थे और उन्होंने हीं कबीर को पाला पोसा। ऐसा भी कहा जाता है कि, इनका जन्म हिन्दू परिवार में हुआ था, लेकिन इनका पालन-पोषण मुस्लिम परिवार में हुआ था। कबीर बचपन से ही धर्मनिरपेक्ष प्रवृति के व्यक्ति थे।

ऐसा कहा जाता है कि, कबीर अनपढ़ थे, उन्होंने कोई शिक्षा हासिल नहीं की थी। लेकिन उस दौर के महान संत गुरु रामानंद के सनिद्धय में उन्होंने गुरु शिष्य परंपरा का निर्वहन करते हुए ज्ञान का अर्जन किया। भक्ति काल में दो तरह के संत हुए एक सगुण और दूसरे निर्गुण। कबीर निर्गुण परंपरा के संत हैं, वे मूर्ति पूजा को नहीं मानते थे और सिर्फ एक परमात्मा में विश्वास रखते थे। उनके अनुयायियों में हिन्दू मुस्लिम दोनों धर्म के बराबर के भक्त शामिल थे। उन्हीं महान संत के कबीर के कुछ चर्चित दोहों की बात करते हैं जो आज भी बच्चों की जुबां पर सुनने को मिल जाते हैं।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय
जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय
व्याख्या: जब मैं पूरी दुनिया में खराब और बुरे लोगों को देखने निकला तो मुझे कोई भी बुरा नहीं मिला. और जब मैंने खुद को देखा और अपने भीतर देखने की कोशिश की तो मुझसे बुरा कोई नहीं मिला। यानि इंसान को दूसरों पर उंगली उठाने से पहले खुद के बारे में भी एक बार मूल्यांकन कर लेना चाहिए।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर
व्याख्या : कबीर अपने इस दोहे से खुद को दूसरों से बड़ा मानने वालों पर कटाक्ष करते हैं। वे कहते हैं कि, बड़ा होने से क्या होता है, अगर उसमे विनम्रता नहीं है तो वो खजूर के उस पेड़ की तरह है जिससे किसी पक्षी को छाया तो मिलती नहीं और उसका फल भी इतनी दूर होता है कि लोग जल्दी पहुंच नहीं पाते।
आज भी लोगों के दिलों में बसे हैं कबीर दास
दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय
जो सुख में सुमिरन करे, दुख काहे को होय
व्याख्या: कबीर अपने इस दोहे में उन लोगों को संबोधित करते हैं जो दुखों का पहाड़ टूटने पर भगवान भगवान का जाप करने लगते हैं और जब सुख की घड़ी आती है तो भगवान को शुक्रिया तक नहीं करते। कबीर कहते हैं कि, परेशानियों में फंसने के बाद ही ईश्वर को लोग याद करते हैं. लेकिन सुख में उन्हें कोई याद नहीं करता। अगर सुख में याद किया जाए तो परेशानी कभी आएगी ही नहीं।
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोए
अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होए
व्याख्या: कबीर का ये दोहा इंसान को जिंदगी जीने का सलीका सिखाता है। वे कहते हैं कि इंसान को हमेशा ऐसे बात करना चाहिए कि उसे सुनने वाला या जिससे वो बात कर रहा है, वो भी आपकी आवाज़ सुनकर क्रोधित या गुस्सा न हो। वे कहते हैं ऐसा करने से आपका अपना फायदा ये है कि, आपका तन शांत रहेगा और सामने वाला भी सुखी रहेगा। ये दोहा वैज्ञानिक आधार पर बहुत महत्वपूर्ण है।

पोथि पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोए
ढाई आखर प्रेम के, पढ़ा सो पंडित होए
व्याख्या : कबीर का ये दोहा कल भी प्रासंगिक था और आज के दौर में भी प्रासंगिक है। आज जहां दुनिया में इंसान इंसान के बीच नफरत है, खुद को दूसरे से बड़ा ज्ञानी होने का घमंड है। ऐसे समय में ये और भी प्रासंगिक है। कबीर कहते हैं कि, दुनिया में आप कितनी भी मोटी मोटी किताबें पढ़ लो, आप असल मायने में पंडित यानि कि, विद्वान नहीं बाण जाते, जब तक अपने प्रेम शब्द जो ढाई अक्षर का है, इसके महत्व को नहीं समझेंगे, कबीर कहते हैं जिसने प्रेम शब्द को जान लिया वहीं असल में पंडित है।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगो कब।।
व्याख्या : जीवन में हर काम को कल पर टालने वाले लोगों के लिए कबीर का ये दोहा आंख खोलने वाले संदेश की तरह है। कबीर कहते हैं जो काम कल करना है, उसे आज ही कर लेना चाहिए। जो काम आज करना है उसे अभी करना चाहिए। क्योंकि जीवन का भरोसा नहीं ये बहुत छोटा है। इस जीवन में पलभर में कुछ भी हो सकता है। ऐसे में जीवन ही समाप्त हो गया तो क्या क्या करेंगे।
कबीर के दोहो ने सिखाई लोगों को जीने की राह
तिनका कबहुं ना निन्दिये, जो पांवन तर होय।
कबहुं उड़ी आंखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।।
व्याख्या : कबीर अपने इस दोहे में कहते हैं कि, कभी किसी की बुराई नहीं करनी चाहिए, भले ही वो राह चलते समय पैर के नीचे आने वाला तिनके के समान क्यूं न हो। क्योंकि अगर वो ही तिनका आंख में चला जाए तो बहुत बड़े दुख का कारण बन जाता है।
कबीर के ये दोहे 600 सालों के बाद भी प्रासंगिक हैं। लोगों को आज भी इसे गुनगुनाते हुए देखा जा सकता है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि, लोग कबीर की वाणी गुनगुनाते तो हैं पर उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास बहुत कम करते हैं।