कोरोना संक्रमण के कारण दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी अपने घरों में कैद है। लगातार दुनिया में बढ़ते और फैलते इस बीमारी के कारण बड़े बड़े देशों की अर्थव्यवस्था बे पटरी हो गई है। पूरी दुनिया में 44 लाख से ज्यादा लोग इस वायरस से संक्रमित हैं, जिनमें से 3 लाख के करीब अपनी जान गवां चुके हैं। भारत की बात करें तो यहां भी कोरोना से संक्रमित लोगों की आबादी लगातार बढ़ रही है। कोरोना संक्रमित लोगों का आंकड़ा 75 हजार हजार के करीब पहुंच गया है। ये हाल तब है जब भारत में लॉकड़ाउन का तीसरा फेज चल रहा है। जल्द ही चौथा लॉकडाउन भी शुरू हो जाएगा। लेकिन इस महामारी में बहुत से अनोखी चीजें भी देखने को मिल रहीं हैं। मसलन एक ओर जहां बड़े शहरों में इसका संक्रमण बहुत तेजी से फैल रहा है तो वहीं छोटे और ग्रामीण इलाकों में इसका प्रकोप कम है। कहने वाले तो इसे बड़े शहर की बीमारी या अमीरों से गरीबों में फैलने वाली बीमारी भी के रहे हैं।

खुद को बड़ा डेवलप और पिछड़ेपन से अलग करने वाले शहरों के लोगों में तेजी से फैलता ये वायरस कई सारी बातों को उजागर कर रहा है। मसलन विकास के दौर में बड़े शहर और वहां के लोगों ने छोटे और ग्रामीण इलाकों के जिन अच्छी बातों से खुद से दूर किया था। आज कोरोना के कारण उसे हैं देखकर बड़े शहरों को भी खुद पर पछतावा हो रहा है। उदहारण के लिए आपको छत्तीसगढ़ के चलते हैं। इस राज्य में कोरोना पीड़ितों की संख्या 59 के करीब है और इनमें से 45 के करीब लोग ठीक भी हो गए हैं। छत्तीसगढ़ का उदाहरण इस लिए क्योंकि यहां की आबादी में ज्यादातर आदिवासियों की तादाद है। विकास की ललक यहां भी पहुंची है लेकिन मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों की तरह नहीं। आमतौर पर अगर आदिवासियों को लेकर एक सोच है कि ये लोग पिछड़े है और अभी भी पुरानी रीति-रिवाजों को मानते हैं। लेकिन आज इनकी यही रीति रिवाज इनके लिए वरदान बन गए हैं।

बस्तर के आदिवासियों ने खुद को कोरोना से बचा रखा है
छत्तीसगढ़ में बस्तर के आदिवासियों ने खुद को कोविड-19 संक्रमण से बचा रखा है. स्थानीय शासकीय अधिकारी और आदिवासी नेताओं की मानें तो करीब 35 लाख जनसंख्या वाले इस क्षेत्र में एक भी कोविड-19 पॉजिटिव केस नहीं मिला है। और इसके दो मुख्य कारण है, जोकि दोनों मुख्य कराको में से एक है इनकी परंपरागत जीवन शैली और दूसरा है सरकार द्वारा उनको सोशल डिस्टेनसिंग के प्रति संवेदनशील बनाया जाना।
बस्तर और यहां के अदिवासियों के बारे में जानकारी रखने वाले लोग बताते हैं कि कोविड -19 से बचने के लिए जिस सोशल डिस्टेनसिंग का आज दुनिया भर में प्रचार हो रहा है वो यहां के आदिवासियों के रोजाना जीवन का अभिन्न हिस्सा है। सोशल डिस्टेनसिंग आदिवासियों का एक स्वाभाविक जीवन है। वहीं जब सरकार से जब इनके बीच इस बीमारी को लेकर जागरूकता अभियान फैलाया तो अपनी परंपरा के अनुसार इन आदिवासियों ने अपने गांव की सीमा को स्वयं ही बाहरी व्यक्तियों ले लिए बंद कर दिया। सिर्फ यही नहीं, बल्कि जो ग्रामीण बाहर से लौटकर चोरी छुपे घरों के अंदर घुसने का प्रयास कर रहे थे उनको स्थानीय स्वास्थ्य कर्मी और पुलिस के हवाले कर क्वारेंटाइन में जाने ले लिए मजबूर भी किया।

आदिवासियों की जीवनशैली और सोशल डिस्टेंसिंग
दरअसल आदिवासियों की जीवन शैली अपने आप में एक सोशल डिस्टेनसिंग का ही रूप है। इनमें आदिवासियों की जीवनशैली के जानकार मानव वैज्ञानिकों की मानें तो यहीं के आदिवासी आमतौर पर अपना घर मिट्टी का बनाते हैं और इनके घर के आगे एक बाउंड्री वाल होता है, जो इतनी होती है कि पड़ोसियों से एक निश्चित दूरी बनी रहती है। लेकिन वहीं बात शहरी क्षेत्रों की करें तो वहां ये पॉसिबल नहीं। आपने देखा होगा कि का जब शहरों के कोरोना के केसेस सामने आ रहे थे तो इसकी शुरूवात बड़े बड़े अपार्टमेंट्स से हो रही थी, जहां एक हीं टॉवर में अनेकों लोग रहते हैं। ऐसे में वहां निश्चित दूरी मेनटेन करना पॉसिबल नहीं है।
दूसरी बात ये है कि शहरों में बढ़ती आबादी के कारण न चाहते हुए भी भीड़ इकट्ठा हो जाती है। जोकि आदिवासियों में शहरी लोगों की अपेक्षा ग्रुप में बहुत कम रहने की परंपरा है। ये ग्रुप में नहीं चलते बल्कि एक दूर के आगे पीछे एक अनुशासन में और एक निश्चित दूरी बना कर चलते हैं। वहीं काम के समय भी बस्तर के आदिवसी स्वाभाविक तौर पर समाजिक दूरी को मेनटेन करके रखते हैं। ये आदिवासी बाजार भी हमेशा नहीं जाते, बल्कि सप्ताह में एक बार बाजार जाकर अपनी जरूरत का समान ले कर अपने घर लौट जाते हैं। इससे ये लोग आम जनता के संपर्क में भी नही आते।

आज पूरे देश में सरकार ने लॉकडाउन बढ़ा रखा है। इसका सिर्फ एक लक्ष्य है कि कोरोना के चैन को ब्रेक किया जाए। वहीं लॉकडाउन में सोशल डिस्टेंसिंग बनाने पर भी वो जोर दे रही है और जनता से अपील कर रही है। लेकिन कहीं ना कहीं इसमें आम जनता की ओर से कोताही बरती गई। शहर से ये बीमारी गांवो की ओर बढ़ गई है। लेकिन अभी भी लोग अपनी जीवन शैली में बदलाव लाने में कोताही बरत रहे हैं। ऐसे में हमें आज आदिवासियों से सीखने की जरूरत है। भेले हीं ट्राइबल जनता सामाजिक दूरी का वैज्ञानिक पहलू नही समझती हैं। लेकिन उन्हें सामाजिक दूरी पूरी तरह से समझ में आती है। यही कारण है कि वे इस मुसीबत की घड़ी में खुद को तो सुरक्षित रख हीं रहे हैं और साथ हीं लोगों को भी सुरक्षित रख रहे हैं और कोरोना के चैन ब्रेक में अपना अहम योगदान दे रहे हैं।