भारत के नार्थ—ईस्ट का हिस्सा… जहां प्रकृति का अद्भुत नजारा है। प्रकृति के बीच में इन इलाकों में कई स्थानीय जनजातियां रहती हैं। जिनके बारे में भारत के ज्यादात्तर हिस्सों के लोग अनजान हैं। लेकिन भारत का यह हिस्सा भारतीय समृद्ध संस्कृति का प्रमाण है। भारत के विभिन्न ट्रडिशन और कल्चर्स में इस भू—भाग की संस्कृति का भी एक अहम हिस्सा है। नॉर्थ ईस्ट के सेवन सिस्टर्स में से एक राज्य है मिजोरम… यानि मिजो लोगों का घर। मिजो जनजाति यहां बहुतायत में है और सरकार और संविधान की ओर से इस क्षेत्र को मिले संरक्षण से इन जनजातियों का अस्तित्व बचा हुआ है। जिस तरह से नए साल की शुरूआत में भारत के अलग—अलग हिस्सों में कई त्योहार मनाए जाते हैं वैसे ही भारत के नार्थ—ईस्ट में भी कई सारे त्योहार है जो इस दौरान मनाए जाते हैं। इन्हीं त्योहारों में एक ‘चापचार कुट’ त्योहार है। नाम सुनने में आम भारतीयों को थोड़ा अजीब लगे लेकिन जब आप इस त्योहार के बारे में जानेंगे तो आपको पता चलेगा कि, यह बाकी के भारतीय त्योहार जो नए साल के शुरूआत के कुछ महीनों में मनाए जाते हैं उन्हीं में से एक है।
खेती और फसल से जुड़ा हुआ है Chapchar Kut Festival

वसंत के महीने में देश के अलग—अलग हिस्सों में कई त्योहार मनाए जाते हैं, इनमें सरस्वती पूजा और वसंत पंचमी का असर हम भारत के मुख्य भू—भाग में तो देखते ही हैं। लेकिन नॉर्थ—ईस्ट में वसंत के दौरान ‘चापचार कुट’ नाम का त्योहार मनाया जाता है। इस त्योहार के बारे में कहा जाता है कि, यह मिजो लोगों के सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। इस त्योहार का जुड़ाव भी भारत के दूसरे त्योहारों की तरह नेचर से ही जुड़ा हुआ है। दरअसल, ट्राइबल इलाकों में एक अलग तरह की खेती होती है जिसे झूम खेती कहते हैं। इस खेती के तरीके में पहले जंगलों और वनस्पतियों को काटकर जला दिया जाता है फिर उसी जमीन पर खेती की जाती है, जब इस जमीन से फसल काट ली जाती है तो उस जमीन को परती छोड़कर अगली बार दूसरी जमीन पर खेती होती है। मिजोरम की मिजो जाति भी इसी झूम खेती को करती है। यहां पर मुख्य रुप से बांस के जंगल होते हैं, ऐसे में ये लोग इन बांसों को काटकर उसी जगह पर खेती करते हैं। इसी दौरान ‘चापचार कुट’ त्योहार ये लोग मनाते है।
चापचार कुट का शाब्दिक अर्थ उस त्योहार से है जो उस समय आयोजित होता है जब बांस और पेड़ों को काट कर उन्हें झूमने यानि की सूखने के लिए छोड़कर इंतजार किया जाता है। झूमिंग के दौरान जो यह समय बचता है इसमें मिजों लोगों के पूर्वज शिकार खेलते थे, मछली पकड़ते थे और दूसरे काम करते थे। छप्पर कुट उत्सव 1450 -1600 ई. के बीच विकसित हुआ। पुराने दिनों में एक त्योहार कई दिनों तक चलता था। इस दौरान एक पूरा प्लान तैयार होता है। गांव के लोग मिलकर स्टेज बनाते है, इस दौरान युवाओ का जोश देखने लायक होता है। त्योहार के समय लोग एक दूसरे से अपने झगड़े सुलझाते है और आपसी रिश्तों को मधुर करते हैं। इस दौरान इस बात का ख्याल रखा जाता है कि, किसी भी घर में मीट और घर के बने अलकोहल की कमी नहीं होने दी जाती। ताकि त्योहार को लोग पूरी तरह से एन्जॉय कर सकें।
समय के साथ बदला है Chapchar Kut Festival

बदलते समय के साथ इस त्योहार में भी कई बदलाव देखने को मिले हैं। मिज़ोरम के सभी गाँवों में चापचार कुट त्योहार आज के दौर में मनाया जाता है और हर गांव में यह त्योहार अपने खास अंदाज में सेलिब्रेट होता है। हर एक गांव में इस त्योहार को 4 से पांच दिनों के लिए तो मनाया ही जाता है और हर दिन को लेकर अलग—अलग कार्यक्रमों की एक लिस्ट होती है। आमतौर पर निम्नलिखित तरीके से मिजोरम में पांच दिन इस त्योहार को मनाया जाता है :—
पहले दिन :— इस दिन लुसी ववक्थल (लुसी शैली में सुअर का वध) और दावत दी जाती है। इस दिन ये लोग सुअरों की बलि देते हैं, लेकिन ये काम लोग देर से करते हैं ताकि घर के नटखट बच्चे सो जाएं। इस दौरान वे दिन बीयर पीकर बिताते हैं।
दूसरे दिन :— इस दिन को ‘राल्ते ववक्थल’ के तौर पर जाना जाता है। इसका मतलब भी सुअरों की बलि से ही है लेकिन यह बलि एकदम सुबह में दी जाती है। इस दिन ज्यादात्तर समय लोगों को दावत पर बुलाने में लोग बिताते हैं। जवान लड़के और लड़कियां खुद को गाने और डांस में व्यस्त रखते हैं। इस दिन गांव की सबसे बुजुर्ग महिला गांव के प्रवेश द्वार जो मुख्य रूप से एक बरगद का पेड़ होता है, वहां पर बैठ कर अपने हाथो का पकाया खाना और उबले अंडे राहगीरों को बांटती है।
तीसरे दिन :- इस दिन रात को जवान लड़के और लड़कियां एक अपने पूरे लोकल परिधान में होते हैं। वे लोग सजधज के तैयार होकर एक जगह पर इकट्ठा होते हैं और एक दूसरे के संग मिलकर नाचते गाते हैं। इस दौरान ये लोग एक घेरा बनाकर अपने दोनों हाथ अगल—बगल एक दूसरे के कमर पर रखते हैं और बीच में एक सिंगर होता है जिसके हाथ में सिंग होती है। इस तरह से ये लोग नाचते रहते हैं। इस दौरान छोटे लड़के और लड़कियों का काम इन लोगों को बीच—बीच में बीयर और चावल खाने—पीने के लिए देना होता है ताकि नाचते नाचते इनकी प्यास को बुझाया जा सके।
चौथा दिन – झुपयी नी – यह एक खास तरह का पेय पदार्थ होता है जिसे भूसी के साथ पीसा गया चावल—बीयर में मिलाकर बनाया जाता है। इसे इसी दिन को विशेष रूप से पूरे दिन लोग पीते हैं। झुपई को आमतौर पर बीयर-पॉट में डूबे साइफन या पाइप के जरिए पिया जाता है। इस दिन बहुत से परिवार जो इसे बनाने में अपना सहयोग देते हैं उनके घरों तक इसे बांटा जाता है और शाम में फिर से नाचने गाने का प्रोग्राम शुरू हो जाता है।
पांचवे दिन — इस दिन को ‘ज़ु थिंग चाव नी’ कहते हैं। इस दिन को जितने भी तरीके की बीयर लोगों ने इकट्ठा की होती है उसे खत्म करने में वे लोग लग जाते है, या तो यह पीकर खत्म करते हैं या अपने रिश्तेदारों में बांट देते हैं।
छठे दिन :— ‘ईपुवर अवाम नी’, इसे सिस्टा का एक दिन कहा जाता है। इसे आराम का दिन माना जाता है। इस दिन लोग खा पीकर आराम करते हैं। इस दिन काम के लिए या शिकार के लिए गांव से बाहर जाना मना होता है.
ऐसे हुई थी इस Chapchar Kut Festival की शुरूआत
इस त्योहार की शुरूआत के बारे में बात करें तो 1450 -1600 ई में इस त्योहार की शुरूआत हुई थी। उस समय कवलनी चीफ का राज यहां के सबसे फेमस और सबसे ज्यादा आबादी वाले गांव सुआई पुई में था। यह गांव मिजो लोगों के पूर्वजों का गांव माना जाता है। उस समय के लोगों का सबसे हाइयेस्ट एसपीरेशन होता था एक बैटल फील्ड, खेल या शिकार में उत्कृष्ट बनना। राजा या उसका बेटा इन लोगों को जंग में या फिर शिकार में लीड करता था। वसंत के समय एक बार सुबह में चीफ ने अपने गांव वालों को इकट्ठा किया और गहरे जानवरों में शिकार करने के लिए निकले। इस दौरान ये लोग चकमक-ताला कस्तूरी, भाले और डोस और गाँव की युवतियों की मदद से निर्मित बंदूक-पाउडर भी अपने साथ ले गए।
कहानियां बताती हैं कि, उस दिन दुर्भाग्य वश कोई शिकार नहीं मिला क्योंकि इन लोगों को चॉंगलेरी(जानवरों की संरक्षक रानी) की ओर से आशीर्वाद नहीं मिला था। इधर गांव वाले उनका बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। ऐसे में जो युवा शिकार पर गए थे। उनके इनोवेटिव दिमाग ने कमाल दिखाया और यहीं से कल्चर कुट की शुरू हुई। इस दौरा ना एक प्लान बना और गांव के मुखिया ने एक दावत का आयोजन किया जो कई दिनों तक चलना था। उन्होंने अपने मोटे सुअरों को आगे किया और दूसरों से भी ऐसा करने को कहा। इस तरह से सबके सहयोग से इस दावत का आयोजन हुआ। कई दिनों तक लोगों ने दावत और चावल-बीयर का आनंद लिया। इस दौरान वे सर्किल बनाकर नाचते और तालियां बजाते।
यह संकेत था कि, भले ही उन्हें शिकार नहीं मिला, लेकिन उन्होंने इस हार को और निराशा को दूर करने का एक तरीका खोज लिया था। यह दिखाता है कि, इंसान अगर चाहे तो निराशा और हार को भी आशा और जीत में बदल सकता हैं। तब से ही इस त्योहार को वसंत के समय मनाया जाने लगा। इस त्योहार के साथ ही एक डांस फ्रेम का भी जन्म हुआ जिसे लोग चाई नाम से जानते हैं। यह एक ऐसा त्योहार है जिसमें हार्ड वर्किंग मिजों लोगों को एक लंबा आराम और जश्न मनाने का मौका मिलता है।
मिजोरम में आज ज्यादात्तर लोग क्रिश्चियनीटी फॉलो करते हैं, लेकिन बावजूद इसके यहां आज भी अपनी पुरानी संस्कृति को लोगों ने छोड़ा नहीं है। वे आज भी अपनी संस्कृति से उसी तरह से जुड़े हुए हैं जैसे सालों पहले जुड़े थे। आज के समय में इस त्योहार में मॉडर्न युग के गाने और डांस ने ले ली है, लेकिन ऐसा नहीं है कि, पारंपरिक नाच—गाना खत्म हो गया है। नए युवा आज भी अपनी जड़ों से मजबूती से जुड़े हुए हैं। इस त्योहार का सबसे बड़ा आयोजन हर साल राजधानी आइजॉल में असम राइफल्स के ग्राउंड में होता है, जहां दुनिया के कोने—कोने से, जहां भी मिजो लोग रहते हैं वे अपनी संस्कृति से जुड़ने के लिए, उसे जीवंत रखने के लिए और समृद्ध बनाने के लिए पहुंचते हैं।