अपनी अनोखी पहचान रखने वाले हमारे देश भारत ने कई सालों की गुलामी की जंज़ीरों में अपने कई साल गुज़ारे हैं. ऐसे में देश की आज़ादी की खातिर 19वीं सदी में जहां राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के उदय ने भारतीय आजादी की रूप-रेखा तैयार कर दी थी. वहीं आजादी के बाद भी देश में कुछ कुप्रथाऐं ऐसी थी. जिन्हें हम चाहकर भी खत्म नहीं कर सके थे. जिसके चलते देश आजाद तो हो गया. हालांकि उन्हीं कुप्रथाओं में जकड़ा देश विधवा महिलाओं का बहिष्कार, बाल विवाह और सती प्रथा जैसी घिनौनी बीमारी को खुद से दूर नहीं कर सका.
यही वजह थी कि, महिलाओं की स्थिति सुधारने की खातिर उस समय इसका बेड़ा अबला बोस ने उठाया. अबला बोस ने ही उस समय की बंगाल की कवित्री कामिनी राय को भी महिलाओं स्थिति सुधारने की दिशा में काम करने की खातिर प्रेरित किया.
आखिर कौन थी अबला बोस
भारत जैसे देश में रहने वाला आज हर भारतीय ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस का नाम सुना होगा. अबला बोस जगदीश चंद्र बोस की पत्नी थी. जिनका नाम आज शायद ही कोई जानता हो. 8 अगस्त 1865 में बरिसल में जन्मी अबला बोस के पिता का नाम दुर्गामोहन था. अबला के पिता उस समय के दास ब्रह्म समाज के बड़े नेताओं में से एक थे. जबकि अबला की माँ ब्रह्ममयी व विधवा महिलाओं के उत्थान के लिए काम किया करती थी. हालांकि अपने बचपन के शुरूवाती समय में ही अबला ने अपनी माँ को खो दिया.
महज़ 10 साल की उम्र में अपनी माँ को खोने वाली अबला पर उस समय तक उनकी माँ को छाप पड़ चुकी थी. अबला शुरू से ही ऐसे घर में पली जहाँ महिलाओँ के उत्थान की खातिर काम किया जाता था. महिलाओं को शिक्षा में आगे बढ़ने की खातिर प्रेरित किया जाता था.
अपनी शुरूवाती शिक्षा अर्जित करने के बाद, अबला ने बेथ्यून कॉलेज में दाखिला लिया. हालांकि यहीं उनका सफर खत्म नहीं हुआ. जिसके बाद मेडीसिन की पढ़ाई के लिए अबला मद्रास विश्वविद्यालय चली गईं. हालांकि सेहत ठीक न होने के चलते अबला अपनी परीक्षाओं के अंतिम समय में अपना आखिरी पेपर देकर वापस अपने घर लौट आई. जिसके बाद उन्हें कभी मालूम नहीं हो सका की वो पास थी या फिर नहीं.
जिसकी वजह थी अबला की शादी. 23 साल की उम्र में अबला की शादी जगदीश चंद्र बोस से कर दी गई. यही वजह थी की 1916 में जिस समय जगदीश चंद्र बोस को नाइटहुड की उपाधि से सम्मानित किया गया तो अबला बोस को ‘लेड़ी बोस’ के नाम से पुकारा गया. ऐसे में हमेशा से ये माना गया कि, जगदीश चंद्र बोस की सफलता की प्रेरणास्त्रोत अबला बोस थी. हालांकि हकीकत इससे कहीं ज्यादा है.
ऐसे शुरू हुआ अबला बोस का सफर
जिस समय जगदीश चंद्र बोस अपने शोध कार्यों के सिलसिले से दूसरे देशों में जाया करते थे. उस समय कई ऐसी यात्राएं थी जिनमें अबला बोस उनके साथ होती थीं. इस दौरान अबला ने दूसरे देशों की महिलाओं के रहन सहन से लेकर सामाजिक व्यवहार पर गौर किया और उन्हें अपने यहां की महिलाओं के पिछडेपन के बारे में मालूम चलता. यही वजह थी कि, अपनी एक यूरोप यात्रा से लौटने के बाद, अबला बोस ने देश की महिलाओं के उत्थान का बेड़ा उठाने की प्रक्रिया पर काम करना शुरू किया. और साल 1910 में, ब्रह्मो बालिका शिक्षालय की सचिव बनी. जहां से अगले आने वाले 26 सालों तक लगातार अबला बोस ने इसकी जिम्मेदारी निभाई.
इसके अलावा अबला ने देश में मोंटेसरी स्कूल के सिस्टम को भी विकसित करने के साथ-साथ लड़कियों के लिए गर्ल्स स्कूल खुलवाए. जिसमें देश के उस समय के जाने माने शोधकर्ता जगदीश चंद्र बोस ने भी अबला बोस का साथ दिया. उनकी और चितरंजन दास की मदद के लेकर अबला ने नारी शिक्षा समिति की स्थापना की. जिसमें उनका साथ भगिनी निवेदिता के साथ-साथ विद्यासागर और गुरूदेव रविंद्रनाथ टैगौर ने दिया.
जिसके चलते उन्होंने अपने पूरे जीवन में लगभग 88 प्राथमिक विद्यालय और 14 वयस्क शिक्षा केंद्र बनवाए. जिसमें मुरलीधर गर्ल्स कॉलेज और बेल्टोला गर्ल्स स्कूल भी शामिल है. इन स्कूल की शुरूवात अबला ने कृष्णप्रसाद बसक के साथ मिलकर की थी. अपने इन्हीं कामों के चलते अपनी अलग पहचान बना चुकी अबला और जेसी बेस उस समय तक स्वामी विवेकानंद और सिस्टर निवेदिता के करीबी बन चुके थे. ऐसा भी माना जाता, जिस समय अंग्रेजी हुकुमत की उदासीनता के चलते जेसी बोस अपने शोध कार्यों में तेजी नहीं ला पा रहे थे. उस समय सिस्टर निवेदिता ने उनकी आर्थिक मदद की थी.
इसके अलावा, सिस्टर निवेदिता ने स्कूल की लड़कियों को आत्मरक्षा के गुण सिखाने के लिए, अन्य कई तरह की मदद की थी. जिससे लड़कियों में समाज का भय कम हो सके और वो बिना डर घर से बाहर निकल सकें. इसके अलावा 1925 आते-आते अबला बोस ने विद्यासगर बानी भवन प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान के तहत विधवा महिलाओं को ट्रेनिंग देने. उन्हें पढ़ाने-लिखाने पर ध्यान दिया. फिर उसके बाद अपनी बनाई नारी शिक्षा समिति के तहत इन महिलाओं को रोज़गार देने की शुरूवात की. इन्हीं वज़हों के चलते ये संस्थान बंगाल का पहला ऐसा संस्थान बन गया था, जहाँ प्राथमिक और पूर्व-प्राथमिक शिक्षकों को पढ़ाया जाता था. उन्हें ट्रेनिंग दी जाती थी.
इसके आगे लेडी बोस, ने कोलकाता और झारग्राम में भी महिलाओं के उत्थान की खातिर महिला शिल्प भवन की स्थापना की थी. जिसके तहत विधवा व कमजोर महिलाओं को वित्तीय स्वतंत्रता के प्रति, व उद्यशीलता के प्रति प्रोत्साहित किया जाता था. जिससे उन महिलाओं को समाज की उस सोच से परे सामाजिक बंधनों से आज़ाद कराया जा सके. कमरहटी में खोले अपने प्रशिक्षण संस्थान में अबला ने गरीब व विधवा महिलाओं की खातिर बुनाई, चमड़े की कारीगरी व सिलाई-कढ़ाई पर जोर दिया. यही वजह थी कि, अबला बोस के इन प्रयासों को देखते हुए बंगाल महिला शिक्षा लीग ने उन्हें पहला अध्यक्ष चुना था.
लेडी बोस के चलते महिलाओं को मिला मताधिकार
महिलाओं को मताधिकार को लेकर जहां देश में अलग बात चल रही थी. वहीं अबला बोस उस समय देश के अन्य प्रभावी महिला सरोजिनी नायडू, जिनराजदासा, रमाबई रानडे, मार्गरेट कजिन्स के साथ उस प्रतिनिधिमंडर का हिस्सा बन चुकी थीं. जोकि 1917 में एडविन मोंटेग्यू से मिला था. ये वो समय था, जिस समय मोंटेग्यू, मोंटेंग्यु-चेम्सफोर्ड सुधारों पर बातचीत के लिए भारत दौरे पर आए थे.
जिसके तहत महिलाओं को राजनीतिक व सामाजिक अधिकार मिलने पर बात चल रही थी. ऐसे में साल 1921 में बॉम्बे और मद्रास में सबसे पहले महिलाओं को मताधिकार देने का अधिकार मिला. साथ ही अबला की मेहनत के चलते साल 1925 आते-आते बंगाल को भी महिलाओं को मत देने का अधिकार मिल गया. जिस समय देश आज़ाद हो चुका था. उस समय अंग्रेजी पत्रिका मॉर्डन रिव्यू पर अपने विचारों को व्यक्त करते हुए अबला ने लिखा था कि, “ए वूमन लाइक ए मेन इज फर्स्ट ऑफ ऑल ए माइंट, एंट ऑनली इन द सेंकड प्लेस फिजिकल एंड ए बॉडी.”
साल 1937 में जिस समय जगदीश चंद्र बोस दुनिया को छोड़ चुके थे. उस समय भी उन्होंने महिलाओं के हक में काम करना बंद नहीं किया. यही वजह थी कि, अपने आखिरी दिनों में लेडी बोस ने सिस्टर निवेदिता के एडल्ट एजुकेशन फंड को शुरू करने की ख़ातिर 10 लाख रुपये दिए थे. जिसके चलते पिछड़ी महिलाओं को बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य मिला सके.
अपने आखिरी दिनों में अबला ने बंगाल छोड़ दिया और दार्जिलिंग में बस गई. जहां उन्होंने किराए पर घर लिया था. जहां उन्होंने महिलाओं को बेहतर जीवन देने और उनके उत्थान के लिए काम किया. ऐसे में हकीक़त है कि, आज़ादी के बाद ऐसे ना जाने कितने क्रांतिकारी हैं. जिन्हें आज़ादी के बाद भुला दिया गया. वक्त है उनको याद करने का…उन्हें बेहतर सम्मान देने का.