एक वक्त था, जब बच्चों के पढ़ने लिखने से लेकर शादी तक की एक उम्र तय होती थी। 3 साल की उम्र में स्कूल की पहली क्लास, फिर 17-18 की उम्र में स्कूल खत्म और 21 आते-आते ग्रेजुएशन होते ही, शादी की शहनाई तक की तैयारियां शुरू हो जाती थी। मगर अब जमाना बहुत आगे निकल आया है। वक्त के साथ-साथ ना सिर्फ पीढ़ी बदली है बल्कि सोचने और समझने के नजरियों में भी काफी बदलाव आया है। अब ना तो शादी करने की कोई उम्र है और ना पढ़ने लिखने की। जिंदगी उम्र की बजाय कुछ सीखने के जज्बे के हिसाब से ज्यादा चलने लगी है, जो कि, एक तरह से अच्छा भी है। क्योंकि, उम्र को मात देते हमारे देश में ऐसे कई लोग हैं, जिनका जज्बा उनकी उम्र को पछाड़ रहा है। ऐसा ही एक स्कूल है महाराष्ट्र के ठाणे जिले के फंगाने गांव में, जहां बच्चे नहीं बल्कि दादी और नानी पढ़ने आती हैं। वो भी गुलाबी साड़ी पहनकर स्कूल ड्रेस में।
Aajibaichi Shala भारत का पहला ऐसा स्कूल है जो कि खास तौर पर सिर्फ दादी और नानी की उम्र की महिलाओं के लिए खोला गया है। ये स्कूल 60 से 95 साल की महिलाओं को प्राथमिक शिक्षा देकर उनके पढ़ने के सपनों को पूरा कर रहा है। इस स्कूल की शुरूआत साल 2016 में महिला दिवस के मौके पर शिक्षक योगेंद्र बांगरे ने की, जो कि फंगाने गांव की ही जिला परिषद प्राथमिक शाला में कार्यरत थे। जहां एक तरफ इन बुजुर्ग महिलाओं को पढ़ाने का जिम्मा योगेंद्र बांगरे ने उठाया तो वहीं दूसरी तरफ इस अच्छी पहल के लिए मोतीराम चैरिटेबल ट्रस्ट ने उनकी पूरी मदद की। इस शाला में मौजूद ब्लैकबोर्ड, चॉक, डस्टर और बैठने की व्यवस्था से लेकर दादी-नानियों को गुलाबी साड़ी, बस्ता, स्लेट और चॉक तक की सारी व्यवस्था इसी ट्रस्ट ने की।

योगेंद्र बांगरे ने की साल 2016 में की Aajibaichi Shala शुरूआत
आजीबाईची शाला को शुरू करने के पीछे योगेंद्र बांगरे का बस एक ही लक्ष्य है वो ये कि, ऐसी महिलाओं को शिक्षित करना, जिन्हें समाज की कुछ रूढ़िवादी सोच के चलते ना कभी स्कूल की शक्ल देखने का मौका मिला और ना कभी किताबें पढ़ने का। योगेंद्र के इस नेक काम के चलते शुरू किए गए इस स्कूल में ज्यादातर ऐसी ही महिलाएं है जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। तो वहीं कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं जो सिर्फ पहली या दूसरी कक्षा तक ही पढ़ाई कर पाई थी। मगर अब वो सीखना और पढ़ना चाहती हैं।
ये स्कूल बाकी स्कूलों से बहुत अलग है, यहां रोज क्लास नहीं लगती बल्कि, महिलाओं के रोज मर्रा के कामों और उनकी निजी जिंदगी को ध्यान में रखकर यहां वीकेंड और छुट्टी वाले दिन महिलाओं को पढ़ाया जाता है। तो वहीं शुरूआत में दादी और नानी की उम्र की इन औरतों को सिर्फ पढ़ना-लिखना और कविता सुनाना सिखाया जाता है। लेकिन हैरान करने वाली बात ये है कि, उम्र के इस पड़ाव में जब अक्सर ना सिर्फ औरतें बल्कि पुरूष तक जिंदगी से हार मान जाते हैं। और बस अपनी बची हुई जिंदगी को बिस्तर पर बच्चों के सहारे बिताने पर मजबूर हो जाते हैं। ऐसे में ये महिलाएं अपने पूरे जज्बे के साथ स्लेट पर बार बार चॉक से लिखने की कोशिश करती हैं। और हर दिन कुछ नया सीखने के लिए तैयार रहती हैं।

Aajibaichi Shala- आसान नहीं था दादी-नानी के लिए घर से शाला का सफर
अब तो पूरा फंगाने गांव शाला के आस-पास से दादी, नानियों की धीमी आवाज में कविताएं गाने की आवाज सुनने का भी आदि हो चुका है। हालांकि, बात अगर शुरूआती दौर की करें, तो जब इस स्कूल की शुरूआत हुई थी तो इन बुजुर्ग महिलाओं के लिए घर से शाला तक का सफर तय करना सबसे मुश्किल काम था। एक तो समाज के ताने और दूसरा बढ़ती उम्र का ख्याल, ये दोनो ही बातों ने दादी नानियों के पैरों में बेड़ियां डालकर रखी हुई थी।
मगर जैसे जैसे एक दो बुजुर्ग महिलाओं ने हिम्मत करके समाज के तानों से परे स्कूल जाना शुरू किया। तब उनको देखकर ही बाकी महिलाओं को पढ़ने के लिए हौसला मिला। फिर क्या था, धीरे-धीरे गांव की लगभग सभी बुजुर्ग महिलाओं ने आजीबाईची शाला में जाना शुरू कर दिया। और खास बात ये है कि, आज इस शाला में इन महिलाओं को सिर्फ पढ़ाया नहीं जा रहा बल्कि, उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश भी की जा रही है। योगेंद्र बांगरे इन महिलाओं को रोजगार देने के लिए आजीबाईची शाला में फूड और ब्यूटी प्रोडक्ट बनाने का प्रयास कर रहे हैं, जिन्हें बेचकर इन महिलाओं की आमदनी हो सके।
देश की पहली दादी-नानियों की पाठशाला ना सिर्फ बुजुर्ग महिलाओं के पढ़ने की इच्छा को पूरा कर रही हैं, बल्कि तमाम रूढ़िवादी सोच को परे रखकर इस बात का संदेश भी दे रही है कि, अगर मन में कुछ कर गुजरने की चाह हो, तो उम्र के किसी भी पड़ाव में सफलता पाना नामुमकिन नहीं है।