भारतीय संस्कृति में प्रकृति यानि मदर नेचर का सबसे ज्यादा महत्व है। यही कारण है कि, हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक के बीच बसे इस बड़े से भू—भाग में, जिसे हम भारत कहते हैं, हर एक त्योहार मदर नेचर को डेडिकेटेड है। अब 14 तारीख यानि कल के दिन जब सूर्य देवता मकर राशि में प्रवेश करेंगे तो हम सब मकर संक्रांति मनाएंगे। इस त्योहार को कई जगहों पर दो दिन के लिए तो कई जगहों पर चार दिनों के लिए मनाया जाता है। संक्रांति आमतौर पर 14 तारीख को ही मनाई जाती हैं। लेकिन कहीं कहीं 13 तारीख, यानि इससे एक दिन पहले भी महत्वपूर्ण त्योहार मनाएं जाते हैं। इनमें से एक है ‘लोहड़ी’। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली में इस त्योहार को मनाया जाता है। लोहड़ी क्या है, इसे कैसे मनाया जाता है? इसके बारे में देश के कई हिस्सों में लोग नहीं जानते।
असल में ‘लोहड़ीं’ भी प्रकृति से जुड़ी हुई है। दरअसल ‘मदर अर्थ’ की ओर से मिले पहले गिफ्ट को मनाने का दिन ही ‘लोहड़ी’ कहलाता है। ये सीजन फसल के कटने का होता है। मतलब पिछले छ: महीनों की मेहनत का फल धरती किसानों को गेहूं के रूप में देती है। जिसकी खुशी जाहिर करने के लिए यह पर्व मनाया जाता है। इस दिन को घर की पुरानी चीजों को एक चौराहे पर इकट्ठा करके रख दिया जाता है। इसमें लकड़ियां भी होती हैं। यह एक तरह से ‘ओपन बॉर्न फायर’ होता है। जिसकी सुबह में हिन्दू रीति—रिवाजों के अनुसार महिलाएं पूजा करती हैं फिर शाम में इसे जलाया जाता है। इसी आग के चारों ओर लोग बैठकर लोकगीत गाते हैं और पारंपरिक डांस ‘भांगड़ा’ करते हैं। नवविवाहित महिलाओं और पुरूषों के लिए यह दिन सबसे खास है। इस दिन को ये लोग सज धजकर, नए कपड़े पहनकर लोहड़ी की जलती हुई लकड़ियों में मूंगफली और गजक आदि डालकर अपने वैवाहिक सुख की कामना करते हैं। कई जगहों पर इस दिन नाच गानों के कंपटीशन भी होते हैं।

कैसे शुरू हुआ लोहड़ी का पर्व, ये हैं पौराणिक कथाएं
हमारा देश विविधताओं के रंग से रंगा हुआ है और यह रंग हमें ‘लोहड़ी’ जैसे त्योहारों पर देखने को मिलते हैं। इसे पौष माह के अंत और माघ की शुरुआत में मनाया जाता है। लोहड़ी मनाने को लेकर कई तरह की कहानियां प्रचलित है। इसमें से पहली कहानी तो इसके नाम में ही छुपी हुई है। लोहड़ी को कई जगहों पर पहले ‘लोह’ कहा जाता था जिसका सीधा मतलब लोहे से होता है। जैसा कि, हमने पहले बताया कि, इस दिन को मदर नेचर की ओर से फसल के रूप में पहला गिफ्ट मिलता है। यह फसल गेहूं की होती है। पहले लोग कम्यूनिटी में रहते थे, मतलब ज्वाइंट फैमली वाले दिन थे तब ऐसे में बड़े चुल्हें पर खाना बनता था। इस दिन गेहूं की फसल से तैयार आटे से पहले रोटी पकती थी। यह रोटी तवे पर सेंकी जाती थी, ये तवा लोहे का होता है। इसी लोहे के तवे से इस दिन का नाम लोहड़ी पड़ा। यानि एक तरह से हम कह सकते हैं कि, यह त्योहार इंसानों के इतिहास के शुरूआती त्योहारों में से एक रहा होगा।
पंजाब के कई ईलाकों में इसे लोई नाम से भी जाना जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि, मान्यता यह है कि, संत कबीर की पत्नी को लोही कहा जाता था। उन्हीं के नाम पर इस त्योहार को लोहड़ी कहा गया। कई जगहों पर इस पर्व को तिलोड़ी भी कहते हैं। इसके पीछे मान्यता यह है कि, इस दिन तिल और रोड़ी यानी गुड़ का खासा महत्व है। इन्हीं दोनों शब्दों के मेल से इस पर्व को तिलोड़ी कहा गया। जिसे समय के साथ बदलकर लोग लोहड़ी कहने लगे। गजक इस त्योहार की सबसे विशेष मिठाई होती है।
पौराणिक मान्यताएं और लोहड़ी का पर्व
इन सबके अलावा कई पौराणिक मान्यता भी है। एक मान्यता के अनुसार होलिका और लोहड़ी दोनों बहनें थीं। लोहड़ी अच्छी प्रवृत्ति वाली थी जिसकी पूजा हिमालय के नीचे के वैली में रहने वाले लोग किया करते थे। यह त्योहार तभी से मनाया जा रहा है। वही एक कहानी भगवान शिव और माता सती से जुड़ी है। बात तब की है, जब सती के पिता दक्ष ने अपने एक यज्ञ में शिव को नहीं बुलाया था। लेकिन अपने पिता के घर सती बिन बुलाए ही पहुंच गई, वहां शिव का अपमान हुआ जिसे वह सुन नहीं सकीं और यज्ञ वाले कुंड में कुदकर खुद को आग के हवाले कर दिया। सती की मौत हुई तो शिव जी क्रोधित हो गए और विरभद्र को पैदा किया, जिसने सब कुछ तहस—नहस कर दिया। इस दिन की याद में भी लोहड़ी मनाई जाती है।
एक पौराणिक कथा श्री कृष्ण से भी जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि, भगवान कृष्ण ने इसी दिन को अपने मामा कंस द्वारा भेजी गई राक्षसी लोहिता को मारा था। इसी की याद में लोहड़ी मनाई जाने लगी।

कौन थे दुल्ला—भाटी और क्यों सुनाई जाती है लोहड़ी पर उनकी कथा?
हमारी परंपराओं में त्योहारों को मनाने के कई बड़े मकसद होते हैं। जैसे कि, एक पीढ़ी के ज्ञान को दूसरी पीढ़ी तक भेजना, नई पीढ़ी को इतिहास की जानकारी देना और बड़ों से बच्चों को कुछ अच्छे संस्कार दिए जा सकें इसके लिए ये त्योंहार मनाए जाते हैं। लोहड़ी भी इसी तरीके का पर्व है। इस दिन को बॉर्न फायर के चारों ओर परिवार और आस—पड़ोस के लोग इकट्ठा होते हैं और एक दूसरे के बारे में जानते हैं। इसी दिन लोगों के बीच एक कहानी सुनाई जाती है। यह कहानी दुल्ला—भाटी की है। जो लोग इस कहानी के बारे में नहीं जानते उनके मन में सवाल आता है कि, ये दुल्ला—भाटी कौन थे? तो चलिए जान लीजिए। पंजाब और इसके आस—पास के इलाकों में दुल्ला—भाटी की कहानी बहुत कही और सुनी जाती है। कहा जाता है कि, वो दौर मुगल बादशाह अकबर का हुआ करता था। तब पंजाब और इसके आस—पास के इलाकों में कुछ अमीर व्यापारी सामान की जगह शहर की लड़कियों को बेचा करते थे। दुल्ला—भाटी ने इस परंपरा का विरोध किया था और कई लड़कियों को इन व्यपारियों के चंगुल से छुड़ाकर उनकी शादी करवाई थी।
कुछ कहानियां कहती हैं कि, दुल्ला—भाटी पंजाब का सरदार हुआ करता था। तो कुछ लोग उसे एक डाकू बताते हैं। यह भी कहा जाता है कि, पंजाब में उस समय सुंदर और मुंदर नाम की दो लड़कियों को उसके चाचा ने एक सूबेदार को बेंच दिया था। दुल्ला-भाटी ने इन दोनों लड़कियों को उस सूबेदार से मुक्त कराकर उनकी शादी करवाई थी। एक और कहानी इसी तरह की है जो जहांगीर के शासनकाल की बताई जाती है। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि, दुल्ला—भाटी उस दौर का रॉबिनहुड था। जिसे आज भी लोग याद करते हैं और उसके द्वारा किए गए काम की तारीफ करते हैं।
कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि, लोहड़ी का त्योहार अच्छे दिन की शुरूआत के तौर पर देखा जाता है। यह त्योहार आपसी मेल—जोल और अपनी जड़ों को जानने का त्योहार है। आज के इस युग में भी जब हमारे पास टाइम की सबसे ज्यादा कमी होती है, ऐसे में भी इस त्योहारों के लिए लोगों के बीच का उमंग यह बताता है कि, भले कितने भी दिन गुजर जाएं हमारी इंडियननेस यू ही बरकरार रहेगी।