‘टैटू’, ये नाम खूब ट्रेंड में है आजकल.. हर किसी को टैटू का शौक है। आजकल युवा लोग स्टाइल, फैशन, स्वैग और न जाने क्या—क्या के चक्कर में टैटू अपने शरीर पर बनवाते हैं। शहरों में तो आजकल इसका क्रेज है। टैटू का ही शुद्ध देहाती नाम है ‘गोदना’। ये गोदना कई सालों से लोग अपने बदन पर गुदवाते आ रहे हैं। हमारे देश में तो एक समुदाय ऐसा है जो रियल लाइफ गजनी फिल्म के आमिर खान जैसा है। इन लोगों को देखकर तो ऐसा लगता है कि, गजनी के डायरेक्टर भी इन्हीं से इंस्पायर हो गए होंगे और फिल्म में आमिर खान के पूरे बदन पर गोदना यानी टैटू गुदवा दिए होंगे। वैसे क्या आप जानते हैं कि, हमारे देश में रहने वाला यह कौन सा ऐसा समुदाय है और ये लोग देश के किस कोने में रहते हैं? नहीं जानते तो हम आपको इनके बारे में बताने जा रहे हैं।
भगवान श्री राम, हमारे देश की संस्कृति के सबसे महान पूर्वजों में से एक हैं। जिनके नाम को सबसे पवित्र माना जाता है। हमारे देश में राम का नाम एक समय तक विशुद्ध पॉलिटिकल नाम बनकर रह गया था। खुद को सबसे बड़ा रामभक्त बताने की होड़ चलती रही, लेकिन अब राम मंदिर पर फैसला आने के बाद ऐसा लगता है कि, पॉलिटिक्स की यह दुकान बंद होगी और होनी भी चाहिए। लेकिन हम बात आज सबसे बड़े राम भक्तों की करने जा रहे हैं जिनके लिए राम सिर्फ नाम नहीं बल्कि उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। ये राम भक्त लोग ‘रामनामी’ कहलाते हैं। राम की भक्ति भी इनके अंदर ऐसी है कि, इनके पूरे शरीर पर यहां तक की जीभ और होंठो पर भी ‘राम नाम’ का गोदना गुदा हुआ है।
कौन हैं रामनामी लोग?

शरीर के हर हिस्से पर राम का नाम, बदन पर रामनामी चादर, सर पर मोरपंख की पगड़ी और घुंघरू इन रामनामी लोगों की पहचान मानी जाती है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की भक्ति और गुणगान ही इनकी जिंदगी का एकमात्र मकसद है। यह ऐसी संस्कृति है जिसमें राम नाम को कण-कण में बसाने की परपंरा है। पूर्वी मध्य प्रदेश, झारखंड के कोयला क्षेत्र और छत्तीसगढ़ में रामनामी समुदाय के लोग बसते हैं।
खासतौर पर इन लोगों की एक अच्छी तादाद छत्तीसगढ़ में है। ऐसा कहा जाता है कि, छत्तीसगढ़ में भक्ति आंदोलन का व्यापक असर रहा है। विशेष तौर पर किसी समय ‘अछूत’ मानी जाने वाली जातियों या दलितों के बीच यह गहराई तक पहुंची। इस संप्रदाय को मानने वाले मुख्य रूप से रायगढ़, जांजगीर-चांपा, बिलासपुर तथा अन्य जिलों में, महानदी के किनारे बसे गांवों में रहते हैं।
रामनामी मुख्य रूप से उस समुदाय के लोग थे, जिन्हें हिंदुओं के बीच जाति और काम के हिसाब से सबसे नीचे के स्थान पर रखा गया था। हालांकि रामनामी परंपरा एक सदी से ज्यादा पुरानी नहीं है। लेकिन इसकी जड़ें 15वीं शताब्दी के कवि-संत कबीर की भक्ति परंपरा से जुड़ी हुई हैं। जो ‘नाम पर केंद्रित’ एक पूजा पद्धति को मानती हैं जिसमें कोई भी शामिल हो सकता है। ऐसा माना जाता है कि, परशुराम नाम के एक चमार ने सबसे पहले अपने माथे पर ‘राम’ शब्द का टैटू गुदवाया। हालांकि इसका कोई लिखित रिकॉर्ड नहीं है, लेकिन यह मौखिक रूप से रामनामियों में चला आ रहा है। ये लोग गोदना को भगवान का चिन्ह मानते हैं।
रामनामी सम्प्रदाय के पांच प्रमुख प्रतीक
रामनामी सम्प्रदाय के पांच प्रमुख प्रतीक माने जाते हैं। ये हैं भजन खांब अथवा जैतखांब, शरीर पर राम—राम का नाम गोदवाना, सफ़ेद कपड़ा ओढ़ना जिसपर काले रंग से रामराम लिखा हो, घुँघरू बजाते हुए भजन करना तथा मोरपंखों से बना मुकट पहनना। किसी भी व्यक्ति के शरीर पर इन प्रतीकों को देखकर आसानी से पहचाना सकता है कि अमुक व्यक्ति रामनामी सम्प्रदाय का है।
भजन खांब अथवा जैतखांब :—
यह पहला प्रतीक है जो आपको इस समुदाय के पुजा स्थलों या मेलों में देखने को मिल जाएगा। रामनामी संप्रदाय के प्रथम पुरुष परशुराम ने राम राम नाम प्रकाशित किया तब उन्होंने सबसे पहला प्रतीक जैतखांब ने अपनाया। यह एक चबूतरे पर स्थापित लकड़ी अथवा सीमेंट से बना स्तम्भ है जो सफ़ेद रंग से पुता होता है और जिस पर सफ़ेद ध्वजा लगी होती है। इन गुंबदों पर राम का नाम काले पेंट से लिखा होता है। बुर्जुगों की मानें तो पहले ये लकड़ी के ही बनाए जाते थे।
रामनामी वस्त्र एवं ओढ़नी :—
रामनामी वस्त्र एवं ओढ़नी इस समुदाय के लोगों को प्रमुख वस्त माना जाता है। मोटे सूती सफ़ेद कपड़े की सवा दो मीटर लम्बी दो चादरें रामनामी पुरुषों एवं संतों की परम्परागत पोशाक हैं। ऊपर ओढ़ी जाने वाली चादर ओढ़नी कहलाती है। कई लोग इन्हीं की शर्ट, कुरता या बनयान भी बनवा कर पहनते हैं। स्त्रियां भी इसी प्रकार ओढ़नी ओढ़तीं हैं। इनपर काले रंग से रामराम नाम लिखा होता है।
मोर मुकट:—
रामनामी समाज में मोर मुकट, निष्काम अवस्था और वासना परित्याग का का प्रतीक माना जाता है। सामान्य रामनामी इसे सामूहिक भजन के टाइम पर पहनते हैं। त्यागी रामनामी जो गृहस्थ जीवन छोड़कर सन्यास अपना चुके होते हैं, वे इसे हमेशा पहने रखते हैं। घर में इसे रखने के लिए एक अलग विशेष स्थान होता है। मर्द ओर औरत दोनों ही इसे धारण करते हैं लेकिन युवा इसे धारण नहीं करते। मरने के बाद पहले ये चीजें उसके साथ दफना दी जाती थी। लेकिन अब इसे किसी करीबी रिश्तेदार को दे दिया जाता है।
शरीर पर राम का नाम :—
राम नाम का गोदना करना रामनामियों का मूल एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहचान वाली प्रतीक है। रामनामियों में यह परंपरा रही है कि, बच्चे के जन्म के छठे दिन उसकी छठी पर ही उसके माथे पर राम राम लिखवा दिया जाता है। इसके उपरांत उसकी पांच वर्ष की आयु होने पर और विवाह के समय भी गादना गोदवाया जाता है।
घुँघरू बजाना:
घुंघरुओं इस समाज का पांचवा प्रतीक है। भजन करते समय यह लोग केवल घुँघरू बजाते हैं। वे इन्हें अपने पैरों में बांध कर एक विशेष लय पर झूमते हैं। कांसे से बने घुंघरुओं को सूत की पतली रस्सी से गूंथ कर इनकी छोटी पैंजना बनाई जाती है, इसे रामनामी ज्यादा समय पास ही रखते हैं। इन घुँघरूओं को विशेष तरीके से बनाया जाता है।
एक किस्सा दलित उत्पीड़न से भी जुड़ा हुआ है
कहा जाता है कि, 19वीं सदी के आखिर में हिंदू सुधार आंदोलन के दौरान इन लोगों ने ब्राह्मणों के रीति-रिवाज जिससे ब्राह्मणों का गुस्सा भड़क उठा। उनके गुस्से से त्रस्त रामनामियों ने सचमुच में राम नाम की शरण ले ली। वे उन दिवारों के पीछे जा छिपे, जिन पर राम नाम अंकित था। जब ये दिवारें भी उन्हें नहीं बचा सकीं तो उन्होंने शरीर पर राम नाम गोदाने को अपना आखिरी हथियार बना लिया। इन इतिहास की बदौलत लोग मानते हैं कि, रामनामी एक महत्वपूर्ण आंदोलन का हिस्सा हैं जिसके जरिए इन लोगों ने घृणा और तिरस्कार के खिलाफ महात्मा गांधी की अहिंसक शैली में विद्रोह किया।
वहीं कुछ लोग यह भी बताते हैं कि, रामनामी विश्वास करते हैं कि, उनके सम्प्रदाय के प्रथम पुरुष परशुराम भारद्वाज के शरीर एवं कुटिया अपने आप ही रामराम उभर आया था। नाम की इसी महिमा के विश्वास में इस सम्प्रदाय के लोगों ने अपने शरीर पर गोदना पद्यति से रामराम लिखवाना शुरू कर दिया।
क्या खत्म हो जाएगा रामनामी समाज?

लंबे समय तक ये बदलाव की हवा से अछूते और आदिम रीति-रिवाजों और परंपराओं से जकड़े हुए इन लोगों ने अपनी इस परंपरा को बनाए रखा और संजोए रखा। लेकिन आधुनिकता के दौर में नई पीढ़ी इन परंपराओं से बचने लगी और अब यह परंपरा खत्म होने की कगार पर है। कई जगहों पर तो खत्म भी हो चुकी है। रायगढ़, रायपुर और बिलासपुर जिले के रामनामियों में दो दशक पहले ही आधुनिकता ने पैठ बनानी शुरू कर दी थी। पूरे शरीर पर राम नाम गोदने की परंपरा तो अब लगभग खत्म ही हो चुकी है।
रामनामियों के सामने अब अपनी पहचान का संकट खड़ा हो गया है। रामनामी संप्रदाय की नई पीढ़ी मात्र ललाट या हाथ पर एक या दो बार राम-राम गुदवा कर किसी तरह अपनी परम्परा नाम मात्र के लिए निभा रही है। साल में एक बार लगने वाले रामनामी भजन मेले में भी लोगों की संख्या घटने लगी है। इनके रीति-रिवाज अब टूट रहे हैं। बुजुर्ग मानते हैं कि, नई पीढ़ी धर्म-कर्म से ज़्यादा दिखावे में लगी है। इसलिए आने वाले 5 से 10 सालों के बाद शायद 120 सालों पुराना रामनामी समाज खत्म हो जाए।