कोई कितना बड़ा आदमी है यह जानना है तो हमे क्या करना चाहिए? हमे यह देखना चाहिए कि, उसने कितना बड़ा काम किया है। क्यों यह जवाब सही है ना! लेकिन यह जवाब सही कैसे हो सकता है। कोई काम बड़ा या छोटा कैसे हो सकता है? काम तो काम होता है, है ना। लेकिन अभी भी कुछ लोग कह सकते हैं कि, बड़े आदमी की पहचान उसके पैसे से भी की जा सकती है कि, उसके पास कितना पैसा है या इस बात से कि, वो कितना बड़ा विद्वान है। यानि की डिग्री? मतलब तीन चीजें हमारे आधार से किसी भी व्यक्ति को बड़ा बनाती हैं पैसा, पावर और ऐजुकेशन, क्यों अब तो इस बात पर सब सहमत होंगे ही? लेकिन अब आपसे तीन सवाल पूछता हूं कि, राम महान क्यों थे? सिद्धार्थ गौतम बुद्ध कैसे बने और महात्मा गांधी महात्मा क्यों कहलाए? इन तीनों सवालों के जवाब में आप लंबे—लंबे लेख लिख सकते हैं। लेकिन अगर एक वाक्य में जवाब लिखने की बात हो तो….!

तो इसका सिर्फ एक ही जवाब होगा और वो ये कि इन सभी में एक क्वालिटी थी और वो ये कि ‘ये दूसरों के दु:ख को अपना समझते थे’। तभी राम वनवास गए, बुद्ध सन्यासी बने और गांधी ने कपड़ा छोड़ पूरी जिंदगी एक धोती पर गुजार दी। आज के दौर में भी कई लोग हैं जो खुद को महात्मा कहलवाना पसंद करते हैं। लेकिन असल में इनका हाल हांथी के दांतों की तरह होता है। यानि खाने के और, दिखाने के और। ऐसे में एक सवाल और है कि, महात्मा कौन हो सकता है? इसके जवाब में संस्कृत का श्लोक है —
नमन्ति फलिनो वृक्षा: ,
नमन्ति गुणिनो जनाः ।
शुष्क काष्ठश्च मूर्खश्च,
न नमन्ति कदाचन् ।।
मतलब विनम्र आदमी और फलों से लदे पेड़ जमीन की ओर झुक जाते हैं जबकि सूखी लकड़ी और मुर्ख लोग कभी नहीं झुकते। अब जरा नज़र उठाइए और देखिए कि आखिर आपके आस—पास कितने लोग ऐसे हैं? वैसे आप यह रिसर्च बाद में करिएगा लेकिन हम आपको ऐसे ही एक इंसान के बारे में बता रहे हैं और वो हैं ‘आलोक सागर’। इनके बारे में आप और अच्छे से जान सकें इसके लिए बता दें कि ये हमारे देश के रिर्जव बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के गुरूदेव हैं। यानि अगर कहें कि, राजन साहब सागर जी के चेले हैं, तो खुद वे भी बुरा न मानेंगे।
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हमारी और आपकी एक आदत है कि अगर किसी आदमी की डिग्रियां जान लेते हैं और उसकी करेंट सिचुएशन को देखकर दोनों में कोई मेल नहीं कर पाते तो उसके बारे में जानने की इच्छा और बढ़ जाती है। तो पहले डिग्री वाले आलोक सागर के बारे में जान लीजिए। 20 जनवरी 1950 में प्रोफेसर आलोक सागर का जन्म राजधानी दिल्ली में हुआ था। बड़े हुए तो इंजीनियरिंग करने के लिए IIT दिल्ली पहुंच गए जहां से इलेक्ट्रॉनिक में इंजीनियरिंग की। फिर यहां से 1977 में यूएस निकल गए जहां ह्यूस्टन यूनिवर्सिटी में पढ़े और रिसर्च की डिग्री ली। इस दौरान डेंटल ब्रांच में पोस्ट डॉक्टरेट और समाजशास्त्र विभाग, डलहौजी यूनिवर्सिटी (कनाडा) से फेलोशिप भी की। जब सोचा कि, बहुत पढ़ लिया तो फिर देश लौटे और आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर बन गए। बात उनके परिवार की करें तो आलोक सागर के पिता सीमा व उत्पाद शुल्क विभाग में थे और मां मिरंडा हाउस में फिजिक्स की प्रोफेसर। एक छोटे भाई हैं अंबुज सागर जो आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर है। एक बहन अमेरिका में हैं तो एक बहन जेएनयू में पढ़ाती हैं।

अब तक की बातें जानकर आपको लग रहा होगा प्रोफेसर साहब को अपनी डिग्रियों पर गर्व होगा। लेकिन आपको हैरानी होगी कि, जब कोई भी उनसे डिग्रियों के बारे में पूछता है तो सीधे नकार देते हैं। कई भाषाएं बोलने वाले आलोक सागर करीब 30 सालों से आदिवासियों के बीच रह रहे हैं। प्रोफेसर सागर जो 1989—90 तक आईआईटी दिल्ली में पढ़ा रहे थे उन्होंने अचानक जॉब छोड़ दी और कहीं चले गए, मगर कहां ये किसी को नहीं पता। फिर उनके बारे में पता चला साल 2016 में जब चुनाव के समय इंटेलिजेंस को उनपर शक हुआ। इस पर सागर को अपनी पहचान बताने के लिए अपनी डिग्रियां दिखानी पड़ी। किसी को यकीन नहीं हुआ फिर जांच हुई और ऐसे आलोक सागर की पहचान सबके सामने आई कि, सागर 1990 के बाद से बैतूल में आदिवासियों के संग उन्ही की तरह उनके बीच जिन्दगी जी रहे हैं। कभी दिल्ली के पक्के मकानों मे रहने वाले आलोक आज यहां एक झोपड़ी में रहते हैं। जितनी डिग्रियां इनके पास हैं उस हिसाब से पैसों की कमी न होती, लेकिन जायदाद के नाम पर उनके पास सिर्फ तीन कुर्ते, एक साइकिल और एक नर्सरी भर है।
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पिछले 30 सालों से आदिवासियों के बीच रह रहे प्रोफेसर आलोक सागर देश के इस पिछड़े समाज के लोगों को पढ़ाते—लिखाते हैं। वे अपनी साइकिल पर गांव में घूमते हुए आपको बैतूल में दिख जाएंगे। वे न सिर्फ इस गांव के बच्चों को पढ़ाते हैं बल्कि गांव में फलदार पेड़ों को भी लगाने का काम कई सालों से कर रहे हैं। लोग बताते हैं कि सागर के आने से पहले गांव में 4 से पांच ही आम के पेड़ थे लेकिन उन्होंने इस गांव को कई फलदार और छायादार पेड़ों से भर दिया। साथ ही उन्हें भी पेड़ों और नेचर को लेकर जागरूक किया। प्रोफेसर सागर ने गांव वालो संग मिलकर चीकू, लीची, अंजीर, नींबू, चकोतरा, मौसंबी, किन्नू, संतरा, रीठा, मुनगा, आम, महुआ, जामुन, जैसे कई सैकड़ों पेड़ लगाए हैं।
बैतूल जिले में वे सालों से आदिवासियों के साथ सादा जीवन जी रहे हैं। वे यहां के आदिवासियों के लिए गांव के मुखिया के जैसे हैं। कोई भी दिक्कत होती है तो लोग उनके पास आते हैं और वे उनसे बात—चीत करते हुए मसले का हल निकाल देते हैं। इसके अलावा सागर इन लोगों के सामाजिक, आर्थिक अधिकारों की लड़ाई भी लड़ते हैं। वे आदिवासियों में गरीबी से लड़ने की उम्मीद जगा रहे हैं। वे बैतूल के कोचमहू गांव में रहते हैं। यहां आने से पहले वे उत्तरप्रदेश के बांदा, जमशेदपुर, सिंह भूमि, होशंगाबाद के रसूलिया और केसला में गांवों के लोगों संग रह चुके हैं। इसके बाद 1990 से वे कोचमहू गांव में आए और यहीं बस गए। उस समय सागर किसी संगठन से जुड़े थे और उसी के जरिए देश के गांवों में आदिवासियों के लिए काम कर रहे थे।
प्रोफेसर आलोक की यह सादगी देख उन्हें महात्मा नहीं तो और क्या कहा जाए। वो महात्मा जिनकी जिन्दगी दूसरों के नाम है और वो भी उस दौर में जब कोई अपनी जिंदगी के ऐशो आराम छोड़कर दूसरों के बारे में नहीं सोचते। उन्होंने अपनी जिन्दगी के हर उस सुख को छोड़ दिया जिसके लिए एक आम इंसान सोचता है, ताकि अमीरी और गरीबी के बीच का फर्क मिट सके और देश का आदिवासी मुख्यधारा से जुड़ सके।