भाषा वो माध्यम है, जिसके जरिए हम और आप एक दूसरे से अपने एहसास, अपनी बातें, और अपनी विचार शेयर कर पाते हैं.. दुनिया में बहुत सी भाषाएं हैं सिर्फ भारत में ही न जाने कितनी भाषाएं बोली जाती हैं। लेकिन इनमें से ही कुछ भाषाएं ऐसी रहीं हैं जो समय के अनुसार बाए एंड लार्ज हमारे देश में सबसे ज्यादा बेाली जाती रही है। संस्कृत ऐसी ही भाषा है जिसे तमिल के संग ही सबसे पुरानी भाषा के रूप में जाना जाता है। उत्तर भारत की लगभग सभी भाषाएं इसी से जानी हैं और हमारें प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथ इसी भाषा में लिखें गए हैं। आज की तारीख में संस्कृत सिर्फ पूजा—पाठ या शादी—विवाह में पंडित जी के मुंह से सुनाई देती है या फिर स्कूल कॉलेजों की कक्षा में संस्कृत वाले मास्टरजी के मुंह से, इसके अलावा किसी के मुंह से संस्कृत सुन लें या ये पता लग जाए कि, भारत के किसी कोने में एक गांव एंसा भी है जहां सिर्फ संस्कृत बोली जाती है तो हम समझते है जैसे कोई चमत्कारी घटना हो गई है।

Sanskrit- भाषा पर नहीं होता किसी जाति—समुदाय का कॉपी राइट
वैसे संस्कृत आज कल टॉप न्यूज में हैं, मामला आपको पता ही होगा… कि बीएचयू में एक प्रोफेसर फिरोज खान को संस्कृत पढ़ाने के लिए नियुक्त किया गया है। उसी के विरोध में कुछ बच्चे प्रदर्शन कर रहे हैं कह रहे हैं कि, इससे मालवीय जी की आत्मा को दु:ख पहुंचेगा। हालांकि विरोध करने वाले बच्चों की तादाद कम है और फिरोज खान का वेलकम करने वालों की तादाद बहुत बड़ी। लेकिन एक फिल्म का डायलॉग है न कि मीडिया में निगेटिव चलता है। तो बस इसी सिद्धांत के अधार पर इन बच्चों का चेहरा टीवी तक पहुंच गया। लेकिन क्या सच में किसी मुस्लिम का संस्कृत पढ़ाना सही नहीं है?
यह सवाल अपने आप में ही बेकार सा लगता है क्योंकि आज के आधुनिक युग में इस भाषा का बचा रहना और पूरी दुनिया में इसके महत्व को समझा जाना अगर संभव हो सका है तो उनमें से ज्यादातर गैर हिन्दू स्कॉलरों के कारण। हमारे देश का कल्चर ही संस्कृत में है, मतलब संस्कृत ही हमारी संस्कृति की लिखित पहचान है और हमारी संस्कृति तो कलकल बहती धारा की तरह है जो सबको साथ लेकर चलने की रही है ऐसे में संस्कृत भी तो ऐसी ही हुई फिर इस पर किसी खास वर्ग का कॉपी राइट कैसे हो सकता है? इसे पढ़ने या पढ़ाने से किसी को रोका नहीं जा सकता।
भाषा वैसे भी किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय से पहले दुनिया में आई हुई चीज़ है। ऐसे में इसको धर्म के साथ जोड़कर देखना आगे आए पंथ चलाने वालों विशेष लोगों की गलती का नतीजा है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि विभिन्न संप्रदायों का विकास जिस क्षेत्र विशेष में हुआ और इन धर्मों के प्रवर्तक या पूज्य लोग जिस भाषा का प्रयोग करते थे, उसी भाषा में इनके धर्मग्रंथ लिखे गए। तो ये भाषाएं इन समुदायों की पहचान बन गई। शायद यहीं कारण है कि अरबी-फारसी को इस्लाम, पाली और प्राकृत को बौद्ध और जैन धर्म से जोड़कर देखा जाता है।
Sanskrit- इतिहास में हुए हैं कई बड़े मुस्लिम और गैर—हिन्दू संस्कृत स्कॉलर
वहीं हिन्दी जो आज संस्कृत की उत्तराधिकारी मानी जाती है उसका विकास खुद संस्कृत के साथ-साथ अरबी-फारसी के मिलान से हुआ है। जब हिन्दी का विकास हो रहा था तब मुस्लिम शासकों से लेकर मुस्लिम कवियों तक में संस्कृत का क्रेज था। अमीर खुसरो, सूफी कवियों और भक्तिकालीन संत-कवियों ने भाषा को कभी धार्मिक आधार पर नहीं देखा। शायद यही कारण है कि, संस्कृत किताबों का फारसी ट्रांसलेशन और फारसी का संस्कृत या हिन्दी ट्रांसलेशन हुआ। दारा शिकोह का एग्जांपल तो हमेशा इस चर्चा में आता है। औरंगजेब का भी संस्कृत प्रेम इतिहास में पढ़ने को मिलता है। भक्तिकाल में आमिर खुसरो की रचनाएं, रहीम (अब्दुल रहीम खान—ए—खाना) की कृष्ण पर श्लोक और ज्योतिष पर ‘खेटकौतुकम्’ और ‘द्वात्रिंशद्योगावली’ नाम के दो ग्रंथ इसका बेहतरीन उदहारण रहे हैं। प्रसिद्ध कवि रसखान भी संस्कृत के बड़े विद्वान माने जाते हैं। संस्कृत को अगर पश्चिमी देशों तक पहचान मिली तो उसमें बड़ा योगदान मैक्स मूलर का रहा। जिन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया और वेस्टर्न कंट्री में इसको पढ़ाए जाने पर भी जोर दिया। महात्मा गांधी ने भी भारत में दलितों और मुस्लमानों के संस्कृत पढ़ने और पढ़ाने का समर्थन किया था।
जर्मनी जहां आज दुनिया में सबसे ज्यादा संस्कृत की यूनिवर्सिटीज हैं वहां हिटलर के दौर में थियोडोर ने कहा था ‘अब जर्मन भाषा में कविता लिखना मुमकिन नहीं है.’ ऐसी ही स्थिति आज़ादी के बाद भारत में हिंदी और उर्दू को लेकर हो गई। जिसका असर संस्कृत पर पड़ा। संस्कृत को दैवत्व का मुकुट पहनाकर पूजाघर और शादी—विवाह के मंडप तक समेट दिया गया। आज के दौर में संस्कृत का खूब बखान होता है लेकिन कोई पढ़ना नहीं चाहता और जिन्होंने इसे पढ़ा है और सहेजा है उनकी जाति पूछी जा रही है। संस्कृत बिल्कुल हमारे इंडियननेस स्वभाव की तरह है, यानि यूनिटी इन डायवर्सिटी वाली। लेकिन संस्कृत का विकास इसलिए रूक गया है क्योंकि इसे पूरी तरह से रूढ़ीवाद से अलग नहीं रखा जा सकता है। ऐसे में तो इतना ही कहेंगे:—
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।