लोहार यानि वो लोग जो लोहे के काम से जुड़े होते हैं। आपके घर के किचेन में बहुत से ऐसे सामान आपको मिल जाएगा, जो इन्हीं लोहार लोगों के द्वारा बनाए जाते हैं। जैसे कि तवा जिस पर हर रोज हमारी और आपकी मां रोटी सेंकती हैं…. चांकू या फसूल/हसुआ जिससे सब्जी काटी जाती है, या फिर किसानों के हाथ में आपने हसुली या दत्तिया देखी ही होगी जिससे वो फसल काटते हैं। ये सारी चीजें लोहार ही बनाते हैं। यह भारतीय समाज का वो वर्ग है, जिसका तालुक्क लोहे से है। इसलिए ये लोग लोहार कहे जाते हैं। लोहारों वैसे तो एक जाति है… लेकिन हमारे देश में एक ऐसा समुदाय भी है जो लोहार जाति से नहीं लेकिन वो काम लोहर का ही करते हैं… वे बंजारे भी नहीं है, लेकिन 500 सालों से जिन्दगी बंजारों की तरह ही बिता रहे हैं। हमारे सामाज में रह रहे इस वर्ग का इतिहास तो इतना गौरवपूर्ण रहा है, जिसे सुनकर हर किसी को इनपर फक्र होगा…. लेकिन इसी इतिहास को ढ़ोना इनके लिए एक श्राप सा बन गया है। हम बात ‘गाड़िया लोहार’ समुदाय की कर रहे हैं। जिनकी जिंदगी इतिहास की एक कहानी के कारण ऐसी पलटी कि जिन्दगी एक सफर सी बन गई। यह सफर दुख और तकलीफ का ऐसा संगम रहा है जिसे आज तक इनकी नई पीढ़ी ढ़ोती और भुगतती हुई आ रही है।
महाराणा प्रताप से जुड़ा है गाड़िया लोहारों का इतिहास

गाड़िया लोहारों की कहानी की शुरूआत 500 साल पहले, मुगल काल से होती है। उस समय मुगलिया सल्तनत भारत में अपना पैर पसार रही थी। मुगल शासक अकबर एक के बाद एक भारतीय राजाओं के इलाके को अपने अधीन करते जा रहा था। लेकिन उसी समय मेवाड़ में अकबर के खिलाफ एक वीर खड़ा हुआ जिसने अकबर को कड़ी चुनौती दी। ये वीर महाराणा प्रताप थे। महराणा और अकबर की सेना में कई बार युद्ध हुआ। लेकिन कहा जाता है कि हल्दीघाटी का युद्ध सबसे खतरनाक रहा… जिसका नतीजा तो नहीं निकला, लेकिन एक तरह से महाराणा प्रताप को वहां से निकलना पड़ा। महाराणा के मरने के बाद मेवाड़ तो मुगलों के हाथ आ गया लेकिन यहां रहने वाला लोगों का एक समूह ऐसा था। जिसने मुगलों की गुलामी स्वीकार नहीं की। ये लोग गाड़िया लोहार के पूर्वज थे।
कहते हैं कि, मुगलिया शासन का झंडा चितौड़गढ़ के किले पर लहराने के बाद गाड़िया लोहार के पूर्वज अपनी मातृभूमि से निकल गए और और उसी समय एक प्रतिज्ञा कि, की वे तब तक अपनी जमीन पर नहीं लौटेंगे जब तक उनकी धरती फिर से महाराणा के झंडे के तले नहीं आ जाती। महाराणा के सैनिकों के लिए तलवार और अन्य हथियार बनाने के साथ हीं ये लोग महाराणा के सैनिक भी थे। हल्दी घाटी के लड़ाई के बाद जो प्रण इन्होंने लिया वो इतिहास के लिए तो गौरवशाली बनी… लेकिन उसी प्रण ने आज के दौर में इस सामाज के लोगों की जिंदगी बदत्तर कर दी। जब मुगलों का राज रहा तो ये लोग युद्ध अपराधी घोषित कर दिए गए। फिर ये लोग हमेशा वैसी जगह बसाए जाते जहां से वे सैनिकों की नज़र में रहें। जब मुगल राज खत्म हुआ तो गाड़िया लोहारों को ब्रिटिश राज से भी कुछ लाभ नहीं मिला और ये उस समय भी अपराधी जाति के लोग माने जाते थे यानि वे लोग जो अपराध करते थे। लेकिन अजादी के बाद भारत की सरकार ने कोशिश कि, की इनकी हालत में सुधार लाया जाए। फिर भी असर न के बराबर ही रहा।
जब एक परिंदा पिंजरे में बहुत सालों तक रह लेता है तो वह उड़ना भूल जाता है या यूं कहें कि उसे वह पिंजरा ही उसकी नियति लगने लगती है। कुछ ऐसे ही हालात गाड़िया लोहारों के साथ भी रहे। सालों से घुमंतू जिंदगी के आदी हो चुके इन लोगों को किसी एक जगह पर बसाने की कोशिश तो हुईं लेकिन कामयाबी नहीं मिली। इन लोगों की जिंदगी आज भी सड़कों के किनारे टेंटों में गुजरती हैं। मुगल काल और ब्रिटिश काल में इन लोगों को पुलिस ज्यादात्तर अपने कोतवालियों के नज़दीक ही बसाती थी। वैसा ही आज भी है इन लोगों कि ज्यादातर अस्थायी बस्तियां कोतवातियों के नजदीक सकड़ों के दोनों किनारों पर होती हैं। कभी अपनी बात से नहीं मुकरने का इतिहास बनाने वाले इन लोगी कि जिंदगी से किस्मत ऐसे मुकरी कि इनकी जिंदगी में फिर कभी वो सुनहरा पल नहीं आ सका जिसके ये हकदार थे।

गाड़िया लोहार हैं राजपूत
कहते हैं कि परंपराओं के बनने में कई साल लगते हैं, लेकिन जब यहीं परंपरा अलग रुप ले लेती है तो वह समय के साथ तालमेल नहीं बैठा पाती। गाड़िया लोहारों के बारे में सालों से बनी युद्ध अपराधी की छवी आजादी के बाद भी इसीलिए जारी रही, क्योंकि इनको देखने की जो परंपरा सामाज में चली आ रही थी.. उसने रूढ़ रुप ले लिया। यही कारण है कि, आजाद भारत की पुलिस के नज़र में ये लोग अपराधिक छवि वाले ही बने रहे और ये लोग पुलिस की नज़रों में हमेशा चढ़े रहे। जैसे-जैसे ये लोग बढ़े इनकी अपराधिक छवि भी बढ़ती गई। लेकिन ये लोग मूल रूप से राजपूत यानि छत्रिय ही हैं। वक्त ने इनको इस हाल पे ला खड़ा किया कि ये लोग जो कभी हथियार बनाते थे वे अब लोहे से बने किचेन यूज वाले सामान बनाने लगे और यही काम इनकी आने वाली पीढ़ी भी करने लगी। छोटे—छोटे सामानों को बनाने वाले ये लोग सदियों से सड़कों के किनारे छोटी—छोटी बस्तियों में अपनी जिंदगी काट रहे हैं। एसे में शिक्षा और बेहतर जिंदगी से दूर हो चुके ये लोग, अक्सर किसी न किसी अपराधिक घटना का शिकार भी हो जाते हैं।
औपचारिक रूप से नहीं हैं भारतीय

अपनी पुरानी प्रतिज्ञा के रूढ परंपरा बनने और इनके अस्थाई होने के कारण ये लोग एक जगह पर टिकते नहीं, जिंदगी ऐक जगह से दूसरे जगह पर घूमते—घूमते बीत जाती है। जिसके कारण इन लोगों को एक बड़ा नुकसान यह हुआ है कि ये लोग औपचारिक रुप से भारत के नागरिक नहीं बन सके हैं। लेकिन मौजूदा नई पीढ़ी जो अब पढ़ने लिखने लगी है, वो अपने अधिकारों को जानने लगी है तो सरकार से अपना हक भी मांग रही है। बात अगर सिर्फ दिल्ली में रहने वाले गाड़िया लोहारों की बात करें तो आज इनके पास वोटर आईडी कार्ड से लेकर अधार कार्ड तक की सुविधा तो हो गई है। लेकिन अभी भी इनकी आधी अबादी के बच्चों को स्कूल नसीब नही हैं। दिल्ली में तो इनकी हालत फिर भी थोड़ी ठीक है लेकिन देश के अन्य हिस्सों में इन लोगों के लिए अभी उम्मीद की किरण दूर ही दिखती है। न तो स्कूल की सुविधा, न ही किसी सरकारी नौकरी में इनके लिए कोई जगह….. इनके जीवनयापन का केवल एक ही सहारा है और वो है इनका पारंपरिक काम जिसने इनके नाम के पीछे लोहर शब्द जोड़ दिया।
लेकिन ऐसा नहीं है, गाड़िया लोहारों के लिए लोग आगे नहीं आ रहे… देश में कई गैर सरकारी संगठन अब इन लोगों की बेहतरी के लिए आगे आए हैं। ये गैर सरकारी संगठन इन लोगों को स्थाई बनाने और इन्हें मुख्य धारा से जोड़ने में लगे हुए हैं। इनमें से कुछ संगठन इस समुदाए के बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए छात्रवास का निर्माण भी करा रहे हैं। वहीं आज इनकी नई पीढ़ी में कई ऐसे युवा निकल आए है जो शिक्षित है और कई अच्छे जगहों पर काम भी कर रहे हैं। नई पीढ़ी जो आज अपनी ऐतिहासिक प्रतिज्ञा से मुक्त हो रही है, उसने इस समुदाय के लिए संभावनाओं के नए द्वार खोल दिए हैं।