नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जिंदगी से जुड़े कुछ अहम किस्से

भारत की आजादी को भले ही 72 साल हो चुके हैं, लेकिन आज भी आजादी के उस संघर्ष को और उस संघर्ष को करने वाले अपने देश के यौद्धाओं को हम भूले नहीं हैं। और भला भूलें भी तो कैसे, उनकी कुबार्नियों के कारण ही तो आज हम आजाद हवा में सांस ले पा रहे हैं। आजादी के उन्हीं हीरोज में से एक महान नेता की आज जयंती हैं। उनके नाम से देश का बच्चा—बच्चा वाकिफ है, और आज भी उन्हे अपना इंस्पिरेशन मानता है। हम बात नेताजी सुभाष चंद्र बोस की कर रहे हैं। 23 जनवरी 1897 को भारत की इस धरती पर इस महान नेता ने जन्म लिया था। नेताजी मानते थे कि, जब तक हमारी सोच आजाद नही होगी हम कभी स्वतंत्र नहीं हो सकते। आजाद सोच और भारत माता को आजाद कराने के लिए उनके कामों ने उन्हें गुलाम भारत में भी वर्ल्ड लीडर बना दिया था। वो लीडर जिससे जर्मनी का हिटलर भी मिलने को बेताब था। आज हम उन्हीं नेताजी की जिन्दगी के कुछ किस्सों के बारे में आपको बताने जा रहे हैं। ये वैसे किस्से हैं, जिनके बारे में हमने और आपने बचपन से ही सुना है और कई बार सोचते थे कि, क्या सच में ऐसा हुआ था! तो अगर आप अभी तक यह बात जान नहीं सके हैं तो आज आपके भी कांसेप्ट क्लियर हो जाएंगे।

सुभाष चंद्र बोस को नहीं बर्दाश्त थी देश और देशवासियों की बुराई

सुभाष चंद्र बोस बचपन से ही बहुत इंटेलिजेंट थे, पढ़ने लिखने में एकदम अव्वल। लेकिन साथ में एक सच्चे देशभक्त भी। अपने देश के लिए उनके अंदर इतना प्यार था कि, वो भारत और भारतीयों की बुराई तक नहीं सुन पाते थे। इसी का एक किस्सा उनके कॉलेज टाइम का रहा है। एग्जाम का टाइम था, सब परीक्षा दे रहे थे। सुभाष जिस क्लास में परीक्षा दे रहे थे उस क्लास में टीचर थे प्रो. ई.एफ औटेन। परीक्षा देने वाले छात्रों की वो चेकिंग कर रहे थे, तभी एक छात्र की डेस्क पर एक पर्ची देखी और पूछा कि यह क्या है? क्या यह कोई चीट पेपर है? छात्र ने कहा, “नहीं सर इसमें तो गायत्री मंत्र लिखा हुआ है” तभी प्रोफेसर ने उस पर्ची को फाड़ दिया। और कहा कि, हम अंग्रेज कितनी भी कोशिश कर लें, तुम लोग सुधरोगे नहीं। अंधविश्वास मानते रहोगे। उसने सभी बच्चों को कहा कि, ऐसी सारी पर्चियां उसे दे दे। फिर कहा कि, ‘याद रखो यहां कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो इससे जुड़ी हुई है, सिवाय उसके जो आप उसे दे रहे हो।

अंग्रेज प्रोफेसर की इसी बात पर सुभाष चंद्र बोस ने हाथ उठाया और कुछ बोलने की इजाजत मांगी। नेताजी ने अंग्रेज अफसर को कहा — सर मुझे आपकी बात बहुत लिबरेटिंग लगी। ऐसे में अगर मैं आपकी बातों को मानते हुए आपके नाम के साथ किसी पद को नहीं जोडूं, मतलब जैसे कि, प्रोफेसर या टीचर.. तो क्या मैं वो करने के लिए आजाद हूं जो मैं करना चाहता हूं? प्रोफेसर ने कहा क्या करना चाहते हो? इसके बाद सुभाष बाबू ने अपने जूते उतारे और अंग्रेज प्रोफेसर की धुनाई कर दी। इस काम के लिए उन्हें 1918 में प्रसिडेंसी कॉलेज से बाहर कर दिया गया। मामला आगे नहीं बढ़ा क्योंकि अंग्रेज अफसर बात को आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे और उन्होंने इसके खिलाफ कोई पुलिस कम्पलेंट नहीं की। इसके बाद से ही छात्रों में सुभाष का क्रेज बढ़ गया। बालाजी टेली फिल्म ने अपने शो ‘बोस’ में यह सीन दिखाते हुए कहा है कि, ‘प्रोफेसर औटेन की बेइज्जती के बाद एक बात पक्की हो गई कि, अब भारतीय एक गाल पर थप्पड़ खाने के बाद दूसरा गाल आगे नहीं करेंगे, इस बार गाल अंग्रेजी था और थप्पड़ हिन्दुस्तानी।

सुभाष चंद्र बोस

देश को आजादी गांधी नहीं सुभाष चंद्र बोस के कारण मिली

देश को आजादी साल 1947 में 15 अगस्त को मिली थी। लेकिन इसके लिए आजादी के प्रेमियों ने 200 साल के अंग्रेजी राज में हर दिन प्रयास किया। लेकिन इस लड़ाई के कई योद्धाओं को गुमनामी में धकेल दिया गया। ऐसी कोशिश सुभाष के संग भी हुई। कहा गया कि, महात्मा गांधी ही वो नेता थे जिनकी अहिंसा की नीति के कारण ही देश को आजादी मिली। लेकिन क्या सच में ऐसा ही था? देश में आज भी इसी सवाल को लेकर कई लोगों के बीच मतभेद है जो गांधी जी के अहिंसा से ज्यादा भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसे आजादी के मतवालों की कुबार्नी का बड़ा रोल मानते हैं।

मिलिट्री इतिहासकार जनरल जीडी बक्शी ने अपनी किताब ‘बोस: एन इंडियन समुराई’ में इस बात को लिखा है कि, भारत की आजादी के कागजात पर हस्ताक्षर करने वाले ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली यह मानते थे कि, बोस के कारण ही अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था। क्योंकि वे उनके लिए बड़ी चुनौती थे। किताब में बताया गया है कि, 1956 में पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक गवर्नर जस्टिस पीबी चक्रवर्ती एटली और के बीच हुई बातचीत से भी इस बात की पुष्टि होती है।

किताब के अनुसार, जस्टिस चक्रवर्ती ने आरसी मजूमदार की पुस्तक: ‘अ हिस्ट्री ऑफ बंगाल’ के प्रकाशक को एक खत लिखा था, जिसमें उन्होंने लिखा, ‘जब मैं कार्यवाहक गवर्नर था तब लॉर्ड एटली के भारत दौरे पर उनके संग दो दिन बिताए। उनसे विस्तार से चर्चा हुई कि, ब्रिटेन को भारत क्यों छोड़ना पड़ा? जवाब में एटली ने कई कारण गिनाए लेकिन उन सब में सबसे मुख्य था भारतीय सेना और नेवी के लोगों में ब्रिटिश शासन के प्रति बढ़ता असंतोष और अविश्वास। जिसके बढ़ने का सबसे बड़ा कारण नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनके सैन्य कार्य थे। वहीं इसी खत में चक्रवर्ती ने लिखा है कि, गांधीजी पर किए गए सवाल पर एटली ने मुस्कुराते हुए कहा था हमारे यहां से जाने में उनका योगदान ‘बहुत कम’ था।

किताब की बात को अलग रख भी दें तो भी दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन की मिलिट्री इंटेलिजेंस की रिपोर्ट भी इसी बात को सच मानती है। जिसमें कहा गया था कि, भारतीय सैनिक भड़के हुए हैं और उन पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता। उस समय बामुश्किल 40,000 ब्रिटिश टुकड़ी ही भारत में मौजूद थी और उनमें से भी कई अपने देश लौटना चाहते थे। जबकि भारतीय सैनिकों की तादाद 20 लाख के आसपास थी।

सुभाष चंद्र बोस

क्या विमान दुर्घटना में हो गई थी नेताजी की मौत

सुभाष चंद्र बोस की जिन्दगी का हर एक किस्सा बड़ा ही रोचक और इंस्पाइरिंग है। लेकिन लोगों को आज भी उनकी लाइफ के अंत समय पर विश्वास नहीं होता। ऐसा एक बड़ा तबका है जो इस बात को नहीं मानता कि, सुभाष चंद्र बोस की मौत विमान दुर्घटना में हुई। वे मानते हैं कि नेताजी उस दुर्घटना से बचकर निकल गए थे और रूस चले गए थे। ऐसा इसलिए क्योंकि कई सारे ऐसे पहलू हैं जो इस ओर ईशारा करते हैं कि, सुभाष जिंदा थे। वे चकमा देने में माहिर थे, जैसे उन्होंने 1941 में किया था। जब वो अपने घर से 14 ख़ुफ़िया अधिकारियों की आंखों में धूल झोंकते हुए, आधी दुनिया का चक्कर लगाते हुए जापान पहुंच गए थे।

18 अगस्त 1945 को सुभाष चंद्र बोस का विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ था। इस सफर में उनके साथ रहे कर्नल हबीबुर रहमान ने यह बताया था कि, उसी रात लगभग नौ बजे नेता जी ने अंतिम सांस ली थी और 20 अगस्त को उनका अंतिम संस्कार किया गया। लेकिन कई इतिहासकार ऐसा नहीं मानते। उस समय ताइवान जापानियों के कब्ज़े में था जिसपर बाद में अमेरिकियों का कब्ज़ा हो गया। लेकिन असल में दोनों देशों के पास कोई रिकॉर्ड नहीं है जिसमें इस बात का जिक्र हो कि, उस दिन वहां कोई विमान हादसा हुआ था। ऐसा माना जाता है कि, सुभाष वहां से रूस चले गए थे जहां स्टालिन ने उन्हें बंदी बना लिया था।

इस बात की सत्यता के लिए पं.नेहरू के स्टोनोग्राफ़र श्याम लाल जैन की उस गवाही का ज़िक्र आता है जो उन्होंने जांच समिति के सामने दी थी। उन्होंने बताया था कि, नेहरू ने एटली के लिए एक पत्र डिक्टेट कराया था जिसमें नेताजी के स्टालिन के कब्जे में होने की बात कही गई थी। वहीं जापान से आए उस अनुरोध का भी जिक्र आता है जिसमें कहा गया है कि, रिंकोजी मंदिर में रखी अस्थियों को वो भारत को देगा लेकिन एक शर्त पर की उसका डीएनए टेस्ट नहीं कराया जाए। वहीं यह भी बात मार्केट में है कि, इंदिरा गाँधी ने नेताजी पर एक पूरी फ़ाइल अपने सामने फड़वाई थी।

वहीं सुभाष चंद्र बोस के परिवार की जासूसी की बात भी इस ओर ईशारा करती है। दरअसल नेहरू के कार्यकाल में इंटेलिजेंस ब्यूरो ने नेताजी के परिवार की जासूसी की थी। कई लोग मानते है कि, नेहरू के कहने पर ही ऐसा हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि, उन्हें यह बात पता थी कि, सुभाष जिंदा हैं और वो अपने परिवार से सम्पर्क करेंगे।

क्या गुमनामी बाबा ही थे सुभाष चंद्र बोस?

कई लोग मानते हैं कि, सुभाष चंद्र बोस किसी तरह भारत आ गए थे और एक सन्यासी के रूप में अपनी जिंदगी बिता रहे थे। 27 सालों तक यह कयास लगते रहे कि, गुमनामी बाबा ही सुभाष चंद्र बोस थे। कहा जाता है कि, उनके मरने के बाद उनके पास से जो सामान बरामद हुए उसमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिवार की तस्वीरें आदि के अलावा सबसे ज्यादा चिट्ठियां मिलीं जो कलकत्ता से आईं थी। इनमे आज़ाद हिन्द फ़ौज की गुप्तचर शाखा के प्रमुख पवित्र मोहन रॉय, लीला रॉय और समर गुहा की चिट्ठयां थीं।

सभी पत्रों में उन्हें भगवनजी कहा गया है और यहां तक लिखा गया है कि, हमने वहीं किया जो आपने कहा। फैज़ाबाद, अयोध्या या बस्ती में बहुत कम लोग थे जिनसे वे मिलते थे। गुमनामी बाबा के सुभाष होने का सबसे बड़ा प्रमाण माना जाता है उनके नोट्स और किताबों को। भारत-चीन युद्ध पर उन्होंने ‘हिमालयन ब्लंडर’ लिखी थी जिसमें भारतीय जनरलों का ज़िक्र है। वही, नेहरु-गाँधी परिवार पर अनेकों दस्तावेज़ और टिप्पणियां भी उनके पास से मिली। गुमनामी बाबा ने अपने भक्तों से कई ऐसी बातों का जिक्र किया था जो द्वितीय विश्व युद्ध और जापान की हार से जुड़ीं थीं। उनके घर से बरामद चीजों को आज संग्रहालय में रखा गया है।

सुभाष चंद्र बोस

क्या शास्त्री से मिले थे बोस

लाल बहादूर शास्त्री की ताशकंद यात्रा में भी सुभाष चंद्र बोस का जिक्र आता है। ऐसा कहा जाता है कि, शास्त्री जी ने यही बात भारत आकर लोगों के बीच बताने की बात अपने बेटे से कही थी। लेकिन उनकी मौत संदिग्ध तरीके से ताशकंद में ही हो गई। उनकी मौत तो रहस्यमयी रही ही, साथ ही बोस के बारे में भी जानकारियां नहीं मिली। एक तस्वीर इस दौरान सामने आई थी जिसमें सुभाष चंद्र बोस भी देखे गए थे। हाल में कई एक्सपर्ट ने दावा किया था कि, इस तस्वीर में दिख रहा व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि सुभाष चंद्र बोस ही हैं।

सुभाष चंद्र की जिंदगी बेहद रोचक है। भारत की आजादी में उनके योगदान को कोई भारतीय नहीं भूला सकता। साथ ही उनकी मौत की गुत्थी आज भी हर भारतीय के लिए एक रोचक सब्जेक्ट बनी हुई है। कई ऐसे सवाल हैं जिनका राज नहीं खुला, जैसे कि, महात्मा गांधी ने उनके परिवार को अंत्येष्टी करने से क्यों मना किया, नेहरू उनके जिंदा होने के बारे में जानते थे या नहीं, शास्त्री जी से भी सुभाष मिले और फिर गुमनामी बाबा का सामान और उनके बारे में लोगों का मानना। चार जांच कमेटियां भी इस बात का पता नहीं लगा सकीं कि, किस विमान घटना में उनकी मौत हुई। यह भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि, उन्हे स्टालिन ने मार दिया। लेकिन हां हम एक बात तो कह सकते हैं और गर्व से कह सकते हैं कि, वे हमारे देश के हीरो थे, वो हीरो जिसकी सोच आजाद थी और जो भारत के लोगों के लिए युगों तक आजादी के प्रतीक बने रहेंगे। अंत में वो ही शब्द जो हम बचपन से दोहराते आ रहे हैं, सुभाष चंद्र बोस.. अमर रहें, अमर रहें।

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