आज 3 जनवरी का दिन है। ऐतिहासिक रूप से आज का दिन काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसा क्यों? तो ऐसा इसलिए क्योंकि आज के दिन समाज में एक परिवर्तन की नींव ऊपरवाले ने रख दी थी। जिसका परिणाम आगे के कुछ सालों में एक बड़े बदलावों के साथ दिखा। हम बात कर रहे हैं सावित्रिबाई फुले की। इस देश की पहली महिला टीचर, स्कूल प्रिंसिपल और समाज सुधारक। जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फूले के संग समाज के हर अपमान को झेला और समाज में परिवर्तन ला कर ही दम लिया। उनके बारे में कहा जाता है कि, उनके जैसी महिला उस दौर में पूरे विश्व में नहीं थी। एक ओर धर्म की रूढ मान्यताओं को मानने वाला समाज था जिसमें महिलाओं पर पढ़ने-लिखने और अन्य दूसरे कामों को लेकर कई पाबंदियां लगाईं गईं थीं, तो वहीं इसी समाज में ऊंच नीच का भेद भी था जिसका उन्हें सामना करना पड़ा।
19वीं सदी के इस दौर में महिलाओं और दलित लोगों की स्थिति समाज में बहुत खराब थी। वहीं इनके बीच शिक्षा की कमी के कारण ही ये हर एक बात को नियती मानकर बस कोल्हू के बैल की तरह सह लेते थे। लेकिन ज्योतिबाई फुले और सावित्रीबाई फुले के समाज सुधार कार्यक्रमों के बाद समाज के इस वर्ग में एक नवजागरण हुआ। सिर्फ मर्द ही नहीं महिलाओं के लिए भी फुले दंपत्ति की ओर से शिक्षा की अलख जगाई गई। 1 जनवरी 1848 को इस देश का पहला गर्ल स्कूल खुला। इस स्कूल में पहले तो पढ़ाने के लिए टीचर नहीं मिले। लेकिन बाद में सावित्रीबाई फुले ने इस स्कूल में खुद पढ़ाने का काम संभाला। वे इस स्कूल की प्रिंसीपल होने के साथ ही यहां टीचर भी थी। उनके साथ फातिमा शेख भी इस स्कूल में महिलाओं को पढ़ाती थी।

पहले गर्ल स्कूल और सावित्रीबाई फुले की कहानीं
बात 19वीं सदी की है, जब महिलओं के राइटस, एजुकेशन , बाल विवाह, अनटचएबिलिटी, सतीप्रथा, जैसी कुरीतियां समाज में जोरों पर थीं और महिलाएं इन अत्याचारों को सह रहीं थीं। लेकिन सावित्रीबाई फुले ने अपने पति से प्रेरणा लेकर आवाज उठाई और नामुमकिन को मुमकिन किया। सावित्रीबाई फुले ने अपने पति, ज्योतिराव फुले के साथ ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में महिलाओं के अधिकारों में सुधार के लिए काम किया और इसी काम को आगे बढ़ाने के लिए सन् 1848 में भिड़े वाडा में लड़कियों के लिए देश का पहला गर्ल्स स्कूल खोला।
इस स्कूल की स्थापना 9 विभिन्न जातियों की महिलाओं के लिए की गई थी लेकिन इसे बाद में सभी के लिए खोल दिया गया। इस स्कूल से जो सफर शुरू हुआ वो चलता गया। एकसाल बाद ही सावित्रीबाई और महात्मा फुले ने 5 अन्य नए स्कूल खोले और इसके बाद के चार सालों में इनकी संख्या 18 हो गई। सावित्रीबाई ने स्कूल में छात्राओं को पढ़ाने के साथ-साथ समाज सुधार के भी काम करतीं रहीं। 28 जनवरी 1853 को बाल हत्या प्रतिबंधक गृह उन्होंने खोला जहां विधवा पुनर्विवाह सभा का आयोजन किया जाता और जिसमें महिला सम्बन्धी दिक्कतों का समाधान होता था।

सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं की शिक्षा के लिए लोगों के फेंके गोबर तक सहे
महिलाओं की शिक्षा को लेकर फुले इतनी ज्यादा दृढ निश्चय थी कि, वे लोगों की ओर से किए गए अपमान को भी झेल लेती थी। जब सावित्रीबाई फुले स्कूल में पढ़ाने के लिए जातीं थी तो उनके ऊपर गांव वाले पत्थर और गोबर फेंकते थे। सावित्रीबाई रुक जातीं और उनसे विनम्रता से कहतीं ‘मेरे भाई, मैं तुम्हारी बहनों को पढ़ाकर एक अच्छा काम कर रही हूं। आप के द्वारा फेंके जाने वाले पत्थर और गोबर मुझे रोक नहीं सकते, इनसे तो मुझे और प्रेरणा मिलती है। ऐसा लगता है जैसे आप मुझपर फूल बरसा रहे हैं। मैं प्रार्थना करूंगी कि, भगवान आप को बरक्कत दें। कहा जाता है कि वो स्कूल जाते समय दो साड़ी लेकर चलती थी। जब रास्ते में फेंके गए गोबर से एक साड़ी गंदी हो जाती थी तो वो स्कूल पहुंचकर साड़ी बदल लेती थी।
कैसा है देश का पहला गर्ल स्कूल?
सावित्रीबाई फुले की जयंती पर तो उन्हें हर कोई याद करता ही है और उनके संघर्ष को सलाम करता है। लेकिन शायद ही लोग उस स्कूल को भी याद करते हैं जहां भारत की बेटियों को पहली बार अक्षर का ज्ञान हुआ था। क्योंकि किसी को इसके बारे में पड़ी नहीं है। इस स्कूल की हालत कुछ ऐसी ही है जैसी 19वीं सदी में महिलाओं और दलितों की समाज में हुआ करती थी। तस्वीरें इस बात की गवाह है कि, विद्या का यह मंदिर आज खंडहर हो गया है। थोड़ी बहुत चांदनी नीचे की दुकान और गलियों के कारण दिखती है लेकिन कभी ज्ञान का दीपक रही ये इमारत आज अंधकार के तले अपनी पहचान ढूंढ़ रही है।
2500 स्कवायर फीट में बसी इस बिल्डिंग को लेकर पिछले कुछ सालों पहले तक एक खबर आई थी कि इसे पूणे मर्चेंट कॉपरेटिव बैंक को बेंच दिया गया है। वहीं इसके बाद इसे मंतरू किशोंर एसोसिएट ने खरीद लिया। जो इसे तोड़कर यहां कॉम्पलेक्स बनाने वाले थे। जिसके बाद कुछ आंगनबाड़ी केन्द्र की महिलाओं ने यहां विरोध प्रदर्शन किया था और इसे एक मेमोरियल में बदलने की मांग की। इसके बाद दुर्गा सेठ हलवाई गणपति ट्रस्ट ने ऑफर किया कि वो इस जगह को हेरिटेज सेंटर में बदलना चाहते हैं।
प्रपोजल भी सरकार के पास भेजा गया। लेकिन मामला फंस गया। सरकार की ओर से इसके जिर्णोद्वार के लिए कई दावे किए गए लेकिन सब खोंखले साबित हुए। इसके लिए 1998 में एक प्रयास तो हुआ था लेकिन इस बिल्डिंग के नीचे बसे दुकानदारों ने इसके खिलाफ कोर्ट में अपील कर दी। सरकार और दुकानदारों की पशोपेश में यह बिल्डिंग अपने मौत के करीब है। कोर्ट की ओर से सरकार के जमीन अधिग्रहण के डिसीजन पर स्टे लगा हुआ है। तो वहीं कोर्ट से बाहर कोई दूसरा सेटलमेंट नहीं हो सका है। फुले परिवार के लोगों को लगता है कि, शायद ही यह जगह कुछ और सालों तक टिका रहे।