I don’t love you एक ऐसी लाईन जो किसी भी इंसान को ये समझाने के लिए काफी है कि, अब मैं तुमसे प्यार नहीं करता या प्यार नहीं करती. भारत जैसे देश की अगर बात करें तो हमारे देश में फैशन, मॉडलाइजेशन और यहाँ तक की किसी भी पहलू का नज़रिया, यहां की काल्पनिक और वास्तविक कहानियों पर आधारित फिल्मों पर निर्भर करता है. जल्द ही रिलीज होने वाली फिल्म थप्पड़ भी कुछ इसी तरह की कहानी से ताल्लुकात रखती है.
कहने सुनने और समझने में बेहद आम शब्द थप्पड़, उस वक्त अपने होने का एहसास कराता है. जब किसी गाल पर पड़ता है. हाल ही में रिलीज हुए थप्पड़ के ट्रेलर में जहाँ तापसी पन्नू अपने पति से तलाक लेने की बात करती हैं. वहीं उन्हीं के परिवार वाले और उनके दोस्त यहाँ तक की पूरा सिस्टम उन्हें ये कहता है कि, महज़ एक थप्पड़…!
वास्तव में एक थप्पड़ क्या, हमारे भारत के बनाए समाज में तो अपनी पत्नी को एक थप्पड़ मारना, गाली देना यहाँ तक की लातों से मारना और इतना मारना की उससे उठा न जाए ये तो आम बात है. क्योंकि होता भी यही है. तभी तो घरेलू हिंसा की एक रिपोर्ट के मुताबिक हमारे समाज में औसतन 30 प्रतिशत महिलाओं को उनके पति द्वारा शारीरिक, यौन या फिर भावनाओं को आहत करने या फिर दुर्व्यवहार करने के मामला सामने आते हैं.
ये वो मामले हैं जो समाज में बाहर आते हैं. लेकिन उन मामलों का क्या जो घर की ही चार दिवारी या फिर यूँ कहें कि, घर की चार दिवारी के अंदर बनी कोठरी में दफन हो जाती हैं. चीखों से लेकर उनके आंसू भी. ऐसा भी कहा जा सकता है कि, इसी के बल पर आज हमारे समाज में कितनी ही शादियाँ और उनके बंधन सांस ले पा रही हैं.
फिल्में जो हमारे परिवेश को बदलती हैं..
लेकिन थप्पड़ इसके बिल्कुल विपरीत है. क्योंकि ट्रेलर को देखकर इतना तो मालूम चलता ही है कि, शादी के बाद तापसी और उनके पति की जिंदगी एकदम बेहतरीन तरीके से गुजर रही थी. लेकिन फिर अचानक एक थप्पड़ पूरी कहानी का स्वरूप ही बदल देता है. जिसमें अपनी वकील के सामने बैठी तापसी को जब उनकी वकील कुछ सवाल पूछती है कि,
वकील- ” पति का अफेयर चल रहा है..?
तापसी – नहीं…
वकील- तुम्हारा अफेयर चल रहा है…?
तापसी – नहीं…
और जब वकील को तलाक की वजह मालूम चलती है कि, थप्पड़…
तो वकील खुद पूछ लेती है कि, बस एक थप्पड़…
तापसी जवाब देती हैं, हाँ लेकिन, नहीं मार सकता…

उसके बाद समाज के ताने, माँ-बाप का गुस्सा और कितना कुछ. खैर ये तो बस थप्पड़ के ट्रेलर भर की बात है. इसके अलावा भी हमारे यहाँ कई फिल्में इससे इतर भी बन चुकी हैं. जहाँ इस थप्पड़ को उस प्यार के दायरे में रखा गया है. जिससे ये पता चल सके कि, वास्तव में किसी को झप्पड़ मारना प्यार करने जैसा है. जैसे कि, हाल ही में आई कबीर सिंह में देखने को मिला था.
वहीं अगर फिल्मों से निकलकर हकीकत की बात करें तो, हमारे समाज में अगर इस तरह महिलाऐं अपने हक से लेकर अपने जज्बातों की परवाह करने लगे तो शायद, घरेलू हिंसा की रिपोर्ट जो अभी 30 प्रतिशत पर है. वो बढ़कर न जानें कहाँ पहुंच सकती है. क्योंकि हर भारतीय घर में महिलाओं के साथ ऐसा होता ही आया है. जिसकी एक खास वजह ये है कि, पतियों ने हमेशा से अपनी पत्नियों और महिलाओं पर अधिपत्य समझा है. हमने नारियों के सम्मान में उन्हें वो दर्जा तो दे दिया है. जहाँ से आगे और कुछ नहीं हो सकता. क्योंकि हमारे यहां नारियों के बारे में कहा जाता है कि, जिस घर में नारी की पूजा की जाती है. उस घर में देवता का वास होता है. हालांकि हकीकत क्या है, हर इंसान को मालूम है.
महिलाओं-पुरूषों को बदलने की जरूरत है
खैर, थप्पड़ फिल्म की कहानी हकीकत में आज के समाज में वो जोरदार तमाचा है. जोकि आज ही नहीं ये तमाचा हमें काफी पहले पड़ जाना था. ताकि, कबीर सिंह जैसी फिल्मों को न तो समाज में उतना गहरा असर पड़ता और न ही समाज में रह रही उन महिलाओं को बेबस होना पड़ता. क्योंकि हर इंसान के जज्बात अपने अंदर बहुत कुछ समेटे होते हैं. लेकिन जब इन जज्बातों का गला घोंटा जाता है तो सबके अंदर से एक आवाज़ आती है….की अब बस..! कुछ होते हैं जो समझ जाते हैं और कुछ समझने के बाद भी अंजान रह जाते हैं. इसलिए अनेकों वर्षों से महिलाओं और पत्नियों पर राज करते आ रहे पतियों और उन लोगों को अब सचेत होने पड़ेगा कि, महिलाऐं तुम्हारे पैर की जूती नहीं…कि जब चाहा, जहां चाहा निकाला और पहन लिया. फिर छिपा कर रख लिया. हाँ इससे ये भी झुठलाया नहीं जा सकता कि, इससे तलाकशुदा लोगों और महिलाओं की तादात बढ़ सकती है. लेकिन क्या मालूम समाज एक बेहतरी की ओर अग्रसर हो सके.
क्योंकि हमारे समाज में आज के समय में तलाकशुदा महिलाओं को भी तो, वो नजर और वो दर्ज नहीं दिया जाता. क्योंकि हमारे रीति रिवाज भी यही कहते हैं कि, अगर एक बार सात फेरे ले लिए तो आपको सात जनम तक साथ रहना है. यही वजह है कि, हमारे भारत जैसे देश में महिलाएं चुप-चाप सारी उम्र अपने पति की बातों पर जिंदगी गुजार देती है.

क्योंकि उन्हें समाज का डर रहता है. माना कि, हर परिवेश में ऐसा नहीं होता. क्योंकि इसी ट्रेलर में एक डॉयलाग है कि, थप्पड़ यानि की लड़ाई झगड़े से तो प्यार बढ़ता है. हाँ मगर एक प्यार तब तक ही प्यार रहता है जब तक उसका गला न दबाया जा रहा हो.
हमारे समाज में जब भी महिलाओं पर कोई भी रिपोर्ट आती है तो, उसमें उनके ऊपर हो रहे अत्याचारों से पूरे परिवेश की पोल खुल जाती है. क्योंकि अब तक हम अपने समाज में महिलाओं या फिर लड़कियों को वो परिवेश ही नहीं दे सके हैं. जहाँ एक लड़की या फिर महिला घर से निकलने के बाद अपने आप को घर वापस लौटने तक सुरक्षित महसूस कर सके.
चार लोगों के बीच खड़े हम, जब भी हमारे सामने से एक लड़की गुजरती है तो उसके जाते वक्त कसीदे पढ़ना नहीं भूलते और लड़कियां उसे सुनकर अनसुना कर चली जाती हैं. क्योंकि कल को तो उन्हें उसी रास्ते गुजरना है.
क्योंकि न तब कुछ बदला था और न ही अब कुछ बदला है, भले ही समाज को बदलने में हमारी फिल्मों का लगातार योगदान रहा हो. लेकिन इन मुद्दों को अब तक कई फिल्में बनाई गई. बदलाव हुआ लेकिन इस बदलाव की गति उतनी ही धीरे है. जितना की कछुआ और खरगोश की कहानी का वो कछुआ.