कोरोना वायरस चूंकि नया वायरस है, इसलिए इसका सामना करने के मनुष्य के अभी तक के तमाम तरीक़े रक्षात्मक रहे हैं। उसके पास केवल प्लान-ए है और वह डिफ़ेंसिव प्लान है। प्लान-बी है ही नहीं। उसकी खोज की जा रही है। किंतु अभी के लिए मनुष्य ने एक साधारण-से तर्क का इस्तेमाल किया है, और वो यह है कि जब तक हममें इस विषाणु का संक्रमण नहीं होगा, हम सुरक्षित रहेंगे।
शुरू में उन्होंने कहा, हाथ धोइये और चेहरे को नहीं छुइये। एक-दूसरे से दूरी बनाकर रखिये। फिर जब मालूम हुआ कि, इससे काम नहीं चलेगा तो तालाबंदी की नीति अपनाई गई। ना हम बाहर निकलेंगे, ना यह विषाणु हमें ग्रसेगा। एक लतीफ़ा चला कि कोरोना बहुत घमंडी है। वह अपने से आपके घर नहीं आएगा। आप स्वयं जाकर भेंट करेंगे तभी वह हाथ मिलाने बढ़ेगा। जब प्लान-बी न हो तो गरदन नीची करके प्लान-ए पर राज़ी होना पड़ता है। जब आक्रमण की गुंजाइश न हो तो क़िलेबंदी से काम चलाना पड़ता है। पुराने वक़्तों में लम्बे-लम्बे लॉकडाउन होते थे। दुश्मन की फ़ौजें बाहर सीमा पर डेरा डाले होती थीं और नगरवासी क़िले के परकोटे में समा जाते थे। महीनों तक यह स्थिति बनी रहती थी। पहले किसकी रसद चुकती है, पहले किसका धैर्य जवाब देता है, इसी पर सब कुछ निर्भर करता था। आधुनिक मनुष्य के लिए यह लॉकडाउन पुरानी काट की क़िलेबंदी का नया अनुभव है।

किंतु रक्षात्मक होने पर इतना ज़ोर है कि परिप्रेक्ष्य हमारे सामने धुंधला गए हैं। हम कह रहे हैं, हम इनफ़ेक्टेड ही नहीं होंगे तो कुछ नहीं होगा। इसमें हम यह पूछना भूल रहे हैं कि अगर हम इनफ़ेक्टेड हो गए, तब भी क्या होगा? एक वर्ल्डोमीटर्स डॉट इनफ़ो करके वेबसाइट है, जो कोरोना वायरस के रीयल टाइम अपडेट्स देता है। अभी मेरे सामने यह साइट खुली हुई है और यह बतला रही है कि आज दुनिया में कोरोना से संक्रमितों का आंकड़ा 23 लाख 95 हज़ार 636 को भी पार कर गया है । किंतु आप निश्चयपूर्वक मान सकते हैं कि दुनिया में कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या 24 लाख से कहीं ज़्यादा है, लेकिन बहुतेरों का अभी टेस्ट ही नहीं हुआ है। अमरीका ने सबसे ज़्यादा टेस्ट किए हैं, भारत में इतने टेस्ट नहीं किए गए हैं। इस पर आलोचना भी की जा रही है कि भारत टेस्ट की संख्या कम रखकर वास्तविक आंकड़ों को छुपाना चाहता है। किंतु एक सीधा-सा प्रश्न यहां पर यह है कि आख़िरकार महत्व संक्रमितों की संख्या का है या मृतकों की संख्या का है? मृतकों की संख्या तो छुपाई नहीं जा सकती, बशर्ते हम चाइना या नॉर्थ कोरिया की बात नहीं कर रहे हों। और अगर पूरी दुनिया के एक-एक व्यक्ति की जांच कर भी ली जाए, तब भी मृतकों की संख्या तो वही रहेगी, जो आज है। हां, इससे संक्रमितों को समाज से अलग करने में मदद मिलेगी। यह कोरोना से जारी लड़ाई में मनुष्य के प्लान-ए का ही दूसरा चरण है- टेस्ट एंड आइसोलेट। हम संक्रमितों को अलग कर देंगे तो वायरस फैलेगा ही नहीं। किंतु अगर वायरस फैल गया तो क्या? शायद आज हम इस सवाल का सामना करने की पहले से बेहतर स्थिति में हैं।
Corona Virus ने कितनी बदल दी दुनिया

बीते एक महीने में दुनिया कितनी बदल गई है, यह कल्पना करना कठिन है। 12 मार्च को जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित किया था, उस रात तक यूरोप में चैम्पियंस लीग के मुक़ाबले खेले जा रहे थे। इंग्लैंड में खचाखच भरे स्टेडियम में लिवरपूल को एटलेटिको मैड्रिड ने हराकर चैम्पियंस लीग से बाहर कर दिया था। चाहे इंग्लैंड हो, फ्रांस, स्पने, इटली, अमेरिका हर रोज यहाँ हजारों से ज्यादा की संख्या में लोगो मर रहे हैं। यही वजह है कि, अब तक पूरी दुनिया में 1 लाख 64 हजार 565 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। यही नहीं अकेले पूरे यूरोप में 1 लाख से ज्यादा मौतें इस वायरस से हो चुकी है और हजारों की संख्या में लोगों का मरना आम बात सी हो गई है।
आज के समय में कोरोना के आंकड़ों का वर्गीकरण दो तरह से किया जाता है- क्लोज़्ड केसेस और एक्टिव केसेस। क्लोज़्ड केसेस यानी मृतकों और रिकवर्ड लोगों के आंकड़े। अब तक 1 लाख 64 हज़ार से ज्यादा लोगों की जानें गईं है जबकि अब तक इस Virus से 6 लाख 15 हजार 668 लोगों से ज्यादा रिकवर हुए। किंतु ज़रा एक्टिव केसेस पर भी नज़र दौड़ाइये। कुल 23 लाख 95 हजार से ज्यादा, जिसमें न जानें कितने केसेज तो ऐसे हैं जोकि माइल्ड-कंडीशन में हैं। और उससे भी अधिक केसेज क्रिटिकल-कंडीशन में हैं। एक्टिव केसेस का ग्रांड टोटल है- 96 प्रतिशत माइल्ड कंडीशन, 4 प्रतिशत क्रिटिकल कंडीशन। क्लोज़्ड केसेस का ग्रांड टोटल है- 79 प्रतिशत रिकवर्ड, 21 प्रतिशत डेथ्स। एक आशाजनक पहलू की तरफ़ इशारा करने वाले ये आंकड़े हमें इस दूसरे प्रश्न के लिए तैयार करते हैं कि अगर हम संक्रमित हो गए तो भी क्या।

कोरोना से संक्रमण पर मृत्यु ना केवल निश्चित नहीं है, बल्कि मृत्यु की सम्भावनाएं भी अनुपात में क्षीण हैं- कुल 3.4 प्रतिशत मोर्टलिटी रेट। आंकड़ों की जांच करने पर बड़ा दिलचस्प पैटर्न उभरता है कि यूरोप और अमरीका में इस विषाणु ने तबाही मचा दी है, लेकिन तीसरी दुनिया के देशों पर इसका प्रभाव तुलनात्मक रूप से नगण्य है। अफ्रीका तो लगभग अछूता रह गया है। अफ्रीका महाद्वीप का जो देश इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित है, वह दक्षिण अफ्रीका है- हालांकि पिछले कुछ दिनों में वहाँ भी एक्टिव केसेज की संख्या बढ़ी है। एशिया में ईरान और लातीन अमरीका में ब्राज़ील सबसे ऊपर है, पर इन देशों के आंकड़े यूरोप-अमरीका की तुलना में बहुत कम हैं। भारत को ही ले लीजिये। 30 जनवरी को यहां कोरोना का पहला मामला पाया गया था। आज ढाई महीना से ज्यादा का वक्त गुजर चुका है। मृत्युओं का आंकड़ा 543 पार पहुंच चुका है, लेकिन हम इस बात को भी नहीं नकार सकते कि, पिछले कुछ दिनों में भारत में भी यह स्थिति भयावह की ओर जाता दिख रहा है। वहीं अगर इन दो-तीन महीनों का अनुभव बतलाया जाए तो, कोरोना का प्रकोप जैसा विकसित देशों में दिखलाई दिया है, वैसा ग़रीब मुल्कों में नहीं रहा है। और आप भले कहते रहें कि ग़रीब मुल्कों ने इतने टेस्ट नहीं किए हैं, किंतु सच यही है कि टेस्ट नहीं करके केवल संक्रमण के आंकड़े ही छुपाए जा सकते हैं, मृतकों के नहीं।

Corona बदल देगा जिंदगी की अहमियत
इसके क्या कारण हो सकते हैं? खुली दुनिया से सम्पर्क, जो विकसित देशों में ज़्यादा रहता है? या वहां की जीवनशैली सम्बंधी चुनौतियां? प्रदूषण, धूम्रपान, मधुमेह, मोटापा- जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को दुर्बल बनाकर हमें विषाणु के समक्ष निष्कवच कर देते हैं। तो क्या कोरोना वायरस पश्चिमी जीवनशैली में निहित बुराइयों पर एक निर्णायक टिप्पणी है? क्या यह जंक-फ़ूड, शुगर ड्रिंक्स, फ़ैक्टरी फ़ॉर्मिंग, मीट इंडस्ट्री के अंत की घोषणा कर रहा है? क्या इससे सभ्यतागत परिवर्तन होंगे? क्या अब इसके बाद सादा जीवनशैली, शाकाहार, शारीरिक श्रम-प्रधान दैनन्दिनी, प्राकृतिक उपचार, योग-व्यायाम-उपवास आदि का महत्व बढ़ने जा रहा है?
एक परिस्थिति की कल्पना कीजिये- अलबत्ता यह मेरे बौद्धिक उदारवादी मित्रों को अधिक नहीं लुभाएगी- फिर भी फ़र्ज़ कीजिये कि आज से छह माह बाद जहां यूरोप और अमरीका पस्त और निढाल हैं, वहीं भारत ने तुलनात्मक रूप से न्यूनतम क्षति के साथ कहीं दृढ़तापूर्वक इस महामारी का सामना किया है। और अब दुनिया भारत की ओर देख रही है, यह जानना चाह रही है कि उसने वैसा कैसे किया, या इस देश के रहन-सहन, आबोहवा, संस्कृति-सभ्यता, उपचार-प्रणालियों में ऐसा क्या था, जो यह विषाणु उस पर अपना इतना प्रभाव नहीं डाल सका? अगर वैसा हुआ तो क्या वो एक नए युग का प्रादुर्भाव होगा। सोचिये, अगर वैसा हुआ तो।
आप देख सकते हैं, अच्छी ख़बरों की अभी कमी नहीं है। सबकुछ अभी ख़त्म नहीं हो गया है