गलवान वैली, ये नाम आज भारत का लगभग हर इंसान जान चुका है। कारण है, भारत और चीन की सेनाओं के बीच यहां हाल में हुई झड़प। इस झड़प में जहां भारत के 20 जवान शहीद हो गए वहीं चीन के 40 से ज्यादा जवान मारे गए जबकि घायल हुए हैं। चीन अपने हताहत सिपाहियों का आंकड़ा छुपा रहा है। इस लिए सही तरीके से कहा नहीं का सकता कि, उसके कितने जवान मरे हैं। भारत चीन सीमा पर ये 45 सालों में पहली ऐसे घटना है, जब दोनों तरफ के जवानों को अपनी जान गवानी पड़ी हो।
गलवान वैली जो 1962 में भी भारत चीन के बीच हुए युद्ध का केंद्र रहा था, सियाचिन ग्लेशियर के पूर्व में स्थित है और एक मात्र रास्ता है। जिसके जरिए अक्साई चीन में आराम से जाता जा सकता है। ऐसे में ये भारत के लिए बहुत महत्तवपूर्ण जगह है। गलवान को उसका नाम यहां बहने वाली गलवान नदी से अपना नाम मिला है। ये नदी आगे जाकर श्योक नदी में मिल जाती है जो सिंधु नहीं की सहायक नदी है। चीन और भारत के बीच ये जगह युद्ध का मैदान इस लिए बनी है क्योंकी भारत ने इसपर एक पुल बनाया है और चीन नहीं चाहता की भारत ऐसे काम करे।

चीन अब गलवान पर अपना दावा कर रहा है। वो कह रहा है कि ये जगह उसके देश की सीमा में है, लेकिन इतिहास कुछ और ही कहता है। असल में गलवान नाम ही चीन के इस दावे को खोखला साबित कर देता है। इतिहास की बात को मानें तो इस जगह को इसका नाम अंग्रेजों के गाइड गुलाम रसूल गलवान के नाम पर रखा गया, जिन्होंने इस जगह की खोज की थी। आइए इतिहास के इस पन्ने को खंगालते हैं।
कैसे हुआ गलवान का नामकरण

अच्छी बात ये है कि, बहुत से भारतीय इस तथ्य से अवगत हैं कि गलवान का नाम लद्दाख की ट्रैवलर और खोजकर्ता गुलाम रसूल गलवान के नाम पर पड़ा, उन्हीं के नाम पर गलवान नदी का भी नाम रखा गया। अपनी आत्मकथा ‘ सर्वेंट ऑफ साहिब ‘ में गुलाम ने इस बारे में विस्तार से जिक्र किया है। उन्होंने उच्च हिमालय के माध्यम से तिब्बत और यारकंद (अब शिनजियांग, चीन के वर्तमान उइगर स्वायत्त क्षेत्र में स्थित) और पामीर पर्वत के माध्यम से अफगानिस्तान, काराकोरम रेंज और मध्य एशिया के अन्य हिस्सों में जाने के बारे में बताया है। गालवान ने 19 वीं शताब्दी के अंत और 1920 के दशक की शुरुआत में कई जाने-माने यूरोपीय खोजकर्ताओं की सहायता की सहायता इस इलाके में गाइड के रूप में की थी।
गलवान के दौर में ब्रिटिश और रूस के बीच ‘ ग्रेट गेम ‘ चल रहा था। इसका मतलब ये है कि, उस समय रूस और ब्रिटेन अफगानिस्तान और इसके आस पास के उत्तरी और दक्षिणी एशियाई देशों के इलाके में वर्चस्व कायम करने के लिए संघर्षरत थे।
गलवान का जीवन उल्लेखनीय रहा। वे 1887 में K2 (दुनिया की दूसरी सबसे ऊंची चोटी) की ऊंचाई मापने वाली मापने वाली अंग्रेजी भू-वैज्ञानिक मेजर एचएच गॉडविन-ऑस्टेन की टीम का हिस्सा रहे। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य-बिल्डर, स्पाईमास्टर और सेना के प्रमुख सर फ्रांसिस यूनुगसबैंड जो एंग्लो-तिब्बती संधि साइन करवाई थी, साथ 1890 से 1896 के बीच कई अभियानों का हिस्सा रहे। 1892 में गलवान नाला या गलवान नदी नाम पहली बार अस्तित्व में आया। इस दौरान वे डनमोर के 7 वें अर्ल और उस समय ब्रिटिश सेना में लेफ्टिनेंट-कर्नल चार्ल्स मर्रे के संग पामिर पहाड़ों में एक मिशन के लिए गए थे।
इस यात्रा का या मिशन का उद्देश्य क्या था ये इतिहास में साफ नहीं है। लेकिन इस यात्रा के दौरान हुआ एक वाक्य दर्ज किया गया है। दरअसल इस मिशन पर निकले लोगों का कारवां जब वापस लौट रहा था तो वो खराब मौसम के कारण अक्साई चीन का अपना पारंपरिक रास्ता भूल गया और रास्ता भटक गया। रास्ते में चलते चलते ये लोग ऐसे जगह पहुंचे जहां वे लोग खड़ी चोटियों और पहाड़ की एक बड़ी दीवार के बीच फंस गए। । रास्ता खोजने में असमर्थ इन लोगों की मदद 14 साल के एक लड़के ने किया। लड़के ने बिना मिशन को परेशानी में डाले अपने इलाके की अपनी बुद्धि का प्रयोग कर रास्ता खोज निकाला।
इतिहासकार लिखते हैं कि मर्रे इस 14 साल के बच्चे की बुद्धि से इतने प्रभावित हुए की उन्होंने इस नए खोजे गए सुगम रास्ता जो नदी के संग होकर गुजरता था, का नाम उस बच्चे के नाम पर रखने कि बात कही। आइसिस बच्चे का नाम गुलाम रसूल गलवान था। इस तरह इस जगह की नदी का नाम गलवान नदी और वाली का नाम गलवान वैली पड़ा। ये अनोखी बात थी, क्योंकि उस समय के पश्चिम उपनिवेश अपने द्वारा खोजे गए जगह का नाम खुद के नाम पर रखते थे, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि किसी ने उनकी मदद की या नहीं की।
गुलाम रसूल गलवान के बारे में

गुलाम रसूल कश्मीर के एक गरीब परिवार में जन्मे थे। उनका परिवार कॉर्वी लेबर था, जिन्हे बेगर या रेस कहा जाता था। कोर्वी लेबर सिस्टम से आने के कारण उनके परिवार को इस जगह से गुजरने वाले ट्रैवेलर्स या टूरिस्टों के लिए, लेबर, जानवर और कई बार खाने की व्यवस्था करनी पड़ती थी। घर की खराब हालात ने 12 साल की उम्र में ही गुलाम को बड़े और लंबे यात्राओं में शरीक होने पर मजबूर कर दिया। इन इलाकों के काम करना बहुत मुश्किल था, कई लोग इन यात्राओं में अपने पैर के अंगूठे और एडियां को भारी नुकसान पहुंचा बैठते।
1889 में एक कस्मिरी मर्चेंट के नौकर पर उन्होंने काम करना शुरू किया। अगले 35 सालों तक वो किसी ना किसी लंबी यात्राओं का हिस्सा रहे जिसमे इटालियन और अमेरिकी लोग भी आया करते थे। गलवान के बारे में बताया जाता है कि वो कई भाषाओं के जानकार थे, लद्दाखी, तुर्की और उर्दू अच्छे से बोल लेते थे वहीं तिब्बती और कश्मीरी की अच्छी समझ उनको थी।
अपने अभियानों में से एक के दौरान उनकी मुलाकात अमेरिकी यात्री रॉबर्ट बैरेट से हुई। जिनसे उन्होंने अंग्रेजी सीखी। बैरेट से जुड़ने के बाद गलवान की तरक्की भी हुई। वे कारवां के इंचार्ज बन गए। इस दौरान उनका काम पशुओं और आदमियों की खरीद और किराए पर लेना, धन का लेखा जोखा रखना, अनुमानित आपूर्ति के बारे में जानकारी रखना था। इसके आलावा वे साहेब के डिप्लोमेट भी थे और उनके लिए राज्यपाल और अधिकारियों के साथ व्यवहार करते थे। बैरेट और उनकी पत्नी कैथरीन के कहने पर ही गलवान ने अपनी आत्मकथा ‘सर्वेंट ऑफ द साहिबज’ लिखी जो 1923 में प्रकाशित हुई।
जैसे-जैसे साल और यात्राएँ बढ़ती गईं, गलवान का सामाजिक और आर्थिक कद बढ़ता गया। अपने जीवन के अंत में, वह लद्दाख के असाकल बन गए, यानी ब्रिटिश संयुक्त आयुक्त (BJC) के मुख्य मूल सहायक। बीजेसी ब्रिटेन और कश्मीर के महाराजा के बीच एक वाणिज्यिक संधि के तहत बना पोस्ट था जिसका अधिकार लेह के व्यापारियों पर होता था ताकि ब्रिटेन अपने माल का आदान-प्रदान कर सके।
गुलाम रसूल गलवान कि तीसरी और चौथी पीढ़ी आज लद्दाख में रहती है। गलवान के पोते रसूल बिलय बताते हैं कि, “बड़े होकर मैंने अपने परदादा के बारे में बहुत सी कहानियाँ सुनीं। ये पारिवारिक लोककथाओं का हिस्सा है। उनकी कड़ी मेहनत और बलिदान ने हमारे परिवार में लगातार आने वाली पीढ़ियों की दिशा और दशा बदल दी। रसूल के संग चीन से जुड़ी एक कड़वी याद भी है। वे बताते हैं कि 1959 से उनके पिता जो इंटेलिजेंस ऑफाइसियर थे, चीन ने अक्साई चीन में एक खूनी संघर्ष के बाद उन्हें बंदी बना लिया था, हालांकि बाद में उन्हें चीन ने छोड़ दिया।”
गलवान और भारत को लेकर से रसूल कहते हैं कि ये भारत का अभिन्न अंग है और हम अपनी एक इंच जमीन को लेकर भी उतने हीं भावुक हैं जितनी बाकी किसी जमीन को लेकर।