पेड़—पौधों में भी जान होती है। यह बात तो आज सब जानते हैं क्योंकि बचपन से हमने किताबों में इसके बारे में पढ़ा होता है। बचपन से घर में भी पौधों को बेवजह ही काटने और उखाड़ने को लेकर भी डांट लगते समय ये ही सुनने को मिलता है कि, इनमें भी इंसानों की तरह ही जान—प्राण होता है। फिर कई सवाल उठते थे कि, भाई अगर पेड़—पौधों में भी जान होती है तो वेजिटेरियन और नॉन वेजिटेरियन का फर्क क्यों? लेकिन यह पता कैसे चला कि, पेड़—पौधों में जान होती है? और इसका पता किसने लगाया? वो कौन शख्स था जिसने एक झटके में वेजिटेरियन को नॉन वेजिटेरियन बना दिया और फिर नॉन वेजिटेरियन्स, जो हर बार शाकाहारियों से ‘निर्मम मांसभक्षी’ का ताना सुनते थे उन्हें एक इंद्र का वज्र दे दिया कि, ‘पौधो में भी तो जान होती है’!
वैसे यह कारनामा किसी विदेशी वैज्ञानिक ने नहीं किया था। यह बात उस समय की है जब भारत में अंग्रेजों का राज था और मॉर्डन साइंस के मामले में भारत की अपनी कोई पहचान नहीं थी और जो होती, वो अंग्रेजों की ‘व्हाइट मेन बर्डेन’ वाली थ्योरी के कारण मुकाम तक नहीं पहुंच पाती। लेकिन उस समय भारत में 30 नवंबर 1858 को एक वैज्ञानिक का जन्म हुआ जिनका नाम था ‘जगदीश चंद्र बसु’। उनका जन्म बंगाल के मेमेन्सिंघ (जो आज बंग्लादेश में है) में हुआ था। उन्होंने अपनी ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई कोलकाता के सेंट जेवियर स्कूल से की और उसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए। वे लंदन ‘यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन’ से मेडिसीन की पढ़ाई करने के लिए गए थे, लेकिन तबियत खराब हो गई और पढ़ाई कर नहीं सके। इसके बाद भी वे वहीं पर यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रीज पहुंच गए जहां उस समय के एक महान वैज्ञानिक ‘लॉर्ड रेलेह’ के संग उन्होंने काम किया। लेकिन फिर वे भारत आ गए और यहां कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रोफेसर बन गए।

अब शुरू होती है एक वैज्ञानिक की कहानी
किसी भी इंसान के महान बनने के पीछे एक बड़ी कहानी होती है और यह कहानी उस इंसान की जिंदगी में उसके कुछ सिद्धांतों के कारण ही बनती है। उसकी कहानी खुद की पहचान बनाने, इसके लिए संघर्ष करने और नई चुनौतियों को स्वीकार करने की कहानी होती है। बसु जी की जिंदगी में यह सब कुछ है। उनके पिता भगवान चंद्र बसु भले ही एक डिप्टी मजिस्ट्रेट थे, लेकिन जगदीश ने कभी भी उनकी पहचान का फायदा नहीं उठाया और अपनी पहचान खुद बनाई। जब लंदन से वापस लौटे और 1985 में प्रसीडेंसी कॉलेज में फिजिक्स के असिस्टेंट प्रोफेसर बने तो इंडियन होने के कारण इंडिया में ही अंग्रेजों की तुलना में उनके साथ कई तरह के भेद—भाव हुए। वेतन कम मिला, रिसर्च के लिए सामान नहीं मिले और बहुत कुछ। लेकिन उसके बाद भी उन्होंने कई रिसर्च ऐसे किए जो बाद में दूसरों ने कॉपी कर ‘नोबेल प्राइज़ तक जीता। उन्होंने बिना सैलरी के तीन महीने काम किया उनकी इस जिद के कारण आखिरकार अंग्रेजों को झुकना पड़ा। तब सरकार ने उनकी नियुक्ति की तारीख से लेकर पूरा वेतन उन्हें दिया।
पेड़—पौधों में जीवन की खोज करना इतना आसान नहीं था
पेड़—पौधों को लेकर शोध करना जगदीश ने 19वीं सदी के अंत में शुरू कर दिया था। इस समय उनका इंट्रेस्ट लाइफ के फिजिकल नेचर में बढ़ता गया। वे मानते थे कि, लीविंग थिंग और नॉन लीविंग ये दोनों के रास्ते कहीं न कहीं आपस में जुड़े हुए हैं और इसमें इलेक्ट्रोमेंगनेटिक तरंगों की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अपनी इसी सोच के आधार पर बोस ने प्लांट सेल पर इलेक्ट्रिकल सिग्नल के प्रभाव को लेकर शोध शुरू किया। इस शोध में सामने आया कि, पेड़—पौधे भी किसी भी बाहरी एक्शन पर अपने रिएक्शन देते हैं। इनके अंदर ठंडी, गर्मी, काटे जाने, स्पर्श और इलेक्ट्रीकल स्टीमुलेशन के साथ-साथ बाहरी नमी पर भी एक्शन पोटेंशल पैदा हो सकती है। हालांकि यह इनके हर सेल्स में नहीं हो पाता क्योंकि यह रिएक्शन वायरलेस होता है और बसु ने देखा था कि, बार-बार संकेत प्राप्त करते-करते वायरलेस तकनीक की क्षमता कम हो जाती है। पौधों में भी ठीक ऐसा ही होता है।
जगदीश जी ने 1901 से पौधों पर इलेक्ट्रीक सिग्नल प्रभाव को जांचा। इसके लिए उन्होंने ऐसे पौधों को चुना जो स्टिमुलेशन का पूरी तरह से रिएक्शन दे सकें। उन्होंने यह प्रयोग लाजवंति यानि की छुई-मुई और शालपर्णी पर किया। अगर इसकी पत्तियों को छुएं तो वे एक दूसरे की ओर झुकने लगतीं हैं। बोस ने पुलशेसन रिकॉर्डर का प्रयोग किया ताकि वो पौधों के इलेक्ट्रिकल प्लसिंग ऑफ डिसोडियम ग्रीयरेंस को जानवरों की हार्ट बीट की तरह रिकॉर्ड कर सकें। उन्होंने बताया कि, पौधें जो रिएक्शन देते हैं वो उनके सेल्स प्रोलिफ्रेशन से भी जुड़ा होता है। इस सब के अलावा बसु ने पौधों में होने वाली धीमी गति वाले विकास का भी पता लगाया जिसे हम देख नहीं पाते। इसे मापने के लिए उन्होंने ‘क्रेस्कोग्राफ’ बनाया था। इसमें पौधे की ग्रोथ को स्वतः ही दस हजार गुना बढ़ाकर दर्ज करने की क्षमता थी।

बसु ने यह भी बताया कि, हमारी तरह ही पेड़—पौधों को भी दर्द होता है। अगर पौधों को काटा जाए या फिर उनमें जहर डाल दिया जाए तो उन्हें भी तकलीफ होती है और वे मर जाते हैं। उनकी इस खोज को लेकर एक किस्सा मशहूर है। इस शोध को दिखाने के लिए उन्होंने एक सार्वजनिक प्रोग्राम किया। बसु ने एक पौधे में जहर का इंजेक्शन लगाया और वहां बैठे वैज्ञानिकों से कहा- “अभी आप सब देखेंगे कि, इस पौधे की मृत्यु कैसे होती है।”, लेकिन पौधे पर जहर का कोई असर नहीं हुआ। अपनी खोज पर उन्हें इतना विश्वास था कि उन्होंने भरी सभा में जहरीले इंजेक्शन की परवाह किए बिना कह दिया कि “अगर इस इंजेक्शन का इस पौधे पर कोई असर नही हुआ तो दूसरे सजीव प्राणी, यानी मुझ पर भी इसका कोई बुरा असर नहीं होगा।” इतना कहते ही बसु खुद को इंजेक्शन लगाने लगे लेकिन तभी दर्शकों के बीच से एक आदमी खड़ा हुआ और बोला ‘मैं अपनी हार मानता हूं, मिस्टर जगदीश चन्द्र बोस, मैंने ही जहर की जगह एक मिलते-जुलते रंग का पानी डाल दिया था। इसके बाद बोस ने प्रयोग किया और सबने देखा कि, जहर के इंजेक्शन के बाद पौधा सभी के सामने मुरझा गया।
Jagdish Chandra bose के रेडियों की खोज का नोबेल किसी और को मिला
बसु मॉर्डन भारत के पहले वैज्ञानिक थे। जो सिर्फ बॉयोलॉजिस्ट नहीं थे, बल्कि वो पॉलीमैथ, फिजिस्ट, बॉयोफिजिस्ट, बोटनिस्ट और आर्कियोलॉजिस्ट भी थे। पौधों पर काम करने से पहले उन्होंने वो खोज की जिसके लिए नोबेल किसी और को मिला। उन्होंने सबसे पहले रेडियो और माइक्रोवेब ऑप्टिक्स को लेकर शोध किए और यहीं से भारतीय महाद्वीप में Applied science की नींव पड़ी। उनके इसी शोध को लेकर हाल ही मे AIEEE ने उन्हे फादर ऑफ रेडियो माना है। बसु ने अपना अधिकांश शोध कार्य किसी प्रयोगशाला एवं उन्नत उपकरणों के बिना किया और वह एक अच्छी प्रयोगशाला बनाना चाहते थे। बोस इंस्टीट्यूट उनकी इसी सोच का परिणाम है, जो विज्ञान में शोध-कार्य के लिए एक प्रसिद्ध केंद्र है।
रेडियो और नैनो वेब्स पर अध्ययन करने वाले जगदीश चन्द्र बसु पहले भारतीय वैज्ञानिक थे। विभिन्न संचार माध्यमों, जैसे-रेडियो, टेलीविजन, रडार, रिमोट सेंसिंग सहित माइक्रोवेव ओवन की कार्यप्रणाली में बसु का योगदान सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण रहा है। लेकिन उनके इस काम को उस समय दुनिया ने नहीं जाना, शायद इसका कारण था कि, भारत उस समय गुलाम था। वहीं उनके बाद मार्कोनी ने जब रेडियो को लेकर काम किया तो उन्हें इसके लिए नोबेल तक मिला। लेकिन हाल ही में अमेरिकी संस्था IEEE (इंस्टिट्यूट ऑफ़ इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर्स) ने इस बात को साफ किया। अमेरिकी वैज्ञानिकों के ग्रुप ने 100 साल के बाद रेडियो के फादर की गुत्थी को सुलझाया है।
1896-97 में बोस और मार्कोनी दोनों ही लंदन में मौजूद थे। मार्कोनी जहां ब्रिटिश पोस्ट ऑफिस के लिए वायरलेस बनाने के प्रयोग कर रहे थे वहीं बोस वहां एक लेक्चर टूर पर थे. मैक्लर नाम की मैगज़ीन ने मार्च 1897 में दोनों का इंटरव्यू लिया। बसु ने तब अपनी बातचीत में मार्कोनी की काफी तारीफ की। लेकिन बोस ने यह भी कहा कि वे कॉमर्शियल टेलिग्राफी में इंट्रेस्टेड नहीं थे और शायद यही कारण है कि, उनकी खोज मार्कोनी की खोज बन गई। 1899 में बसु ने अपने वायरलेस आविष्कार ‘मर्क्युरी को हेनन विद टेलीफोन डिटेक्टर’ की तकनीक और काम करने तरीके पर एक पेपर रॉयल सोसायटी में पब्लिश करवाया, बोस की वो डायरी खो गई जिसमें इस आविष्कार से जुड़ी सारी डिटेल थी। इसके कुछ समय बाद मार्कोनी ने बोस के आविष्कार के कमर्शियल फायदों को समझ कर अपने बचपन के दोस्त लुईजी सोलारी के साथ बेहतर डिज़ाइन बनाई और 1901 में दुनिया के सामने रखी। मार्कोनी ने इसे पेटेंट करवाया और उन्हे नोबेल पुरस्कार मिला। लेकिन मार्कोनी ने कभी भी बसु को श्रेय नहीं दिया। रॉयल सोसाइटी ने भी आंतरिक राजनीति के चलते भारतीय प्रोफेसर का साथ नहीं दिया।
खैर, यह तो वक्त का खेल था। लेकिन आज दुनिया जान चुकी है कि, फादर ऑफ रेडियो जगदीश चंद्र बसु ही थे। उन्होंने पूरी दुनिया को यह भी दिखा दिया कि, भारत में टैलेंट की कोई कमी नहीं है। यहां एक वैज्ञानिक अकेले ही कई सब्जेक्ट का मास्टर है और दुनिया में भारत का इतिहास तो विज्ञान में गौरवशाली रहा ही है लेकिन आने वाला भविष्य भी गौरवशाली होगा। बता दें कि, 2020 में बैंक ऑफ इंग्लैंड ने नए 50 पाउंड का नोट निकालने जा रहा है। इस पर विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले चेहरे छपेंगे। इसके पहले चरण में जिन 50 लोगों का चयन किया गया है, उनमें जगदीश चंद्र बसु का चेहरा भी एक है।