हर एक इंसान जानता है कि, हम सभी भारतीय हैं और हमारी सभ्यता और संस्कृति ऐसी है, जो भारत को दुनिया में सबसे अलग और बेहतर बनाती है. शायद यही वजह है कि, आज भी हमारी सभ्यता और संस्कृति पूरी दुनिया के लिए मिसाल बनी हुई है.
लेकिन उसी भारत में अगर बात करें सम्मान की तो, शायद कहीं न कहीं ये भारत का दुर्भाग्य ही है कि, हम लोग आए दिन वो सब कुछ खोते जा रहे हैं, क्योंकि बीते दिन जो चीज हमारे देश के साथ-साथ दुनिया ने देखी वो बेहद शर्मनाक और घटिया थी. क्योंकि वो कुछ ऐसा था, जिसे देखकर हर भारतवासी जो भारतीयता का गुण गाता है या फिर बखान करता है. उस पर खुद शर्मिंदा हो जाएगा और दुनिया तो हमपर थूक ही रही होगी।
Vashishtha Narayan- वो महान गणितज्ञ जिनकी लाश को घंटों नहीं मिली एंबुलेंस
बीते दिन एक लाश पटना के मेडिकल कॉलेज के बाहर यूं ही घंटों एम्बुलेंस का इंतजार करती रही और दुर्भाग्य तो देखिए जरा, जिस इंसान की dead body यूं घंटों एम्बुलेंस का इंतजार कर रही थी . वो कोई आम इंसान नहीं, बल्कि दुनिया के महान गणितज्ञों में से एक हैं. जिन्होंने कभी आइंस्टीन के सिद्धांतों को चुनौती दी थी. लेकिन 40 साल की गुमनामी के बाद ऐसा हुआ कि, वो खुद ही गुमनामी में खो गए. अगर थोड़ा हो-हल्ला न हुआ होता तो शायद, इसको लेकर भी बिहार सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती.
चलिए आपको उस इंसान की असल हकीकत से रूबरू कराते हैं, जिसने दुनिया में अपनी और भारतीयता की अलग और अनोखी मिसाल पेश की थी।
ये हर एक इंसान जानता है कि, आज के बच्चों से अगर मैथ्स का सब्जेक्ट के बारे में पूछा जाए तो कहेंगे बहुत बोरिंग है. लेकिन इस देश में कई ऐसे mathematician हुए जिनकी नॉलेज के आगे दुनिया के तेज तर्रार लोगों से लेकर कम्प्यूटर तक पानी भरते नजर आए. अपने आस पड़ोस में आपने कई ऐसे लोगों के बारे में सुना होगा, जिनके बारे में लोग कहते थे कि, वो बेचारा तो पढ़ते-पढ़ते पागल हो गया.
कुछ ऐसा ही किस्सा हकीकत में एक ऐसे शख्स का भी है. जिन्होंने अपनी काबिलियत के दम पर देश का नाम पूरी दुनिया में रौशन कर दिया लेकिन देश में ही उन्हें पागल जानकर मरने के लिए छोड़ दिया गया और जब मरे तो डेड बॉडी के लिए अस्पताल के पास एक एंबुलेंस तक नहीं थी, क्यों ? क्योंकि वो तो पागल थे।
Vashishtha Narayan- जब नासा के कंप्यूटर खा गए मात, तब काम आया नारायण का दिमाग!
हम बात वशिष्ठ नारायण की कर रहे हैं। जिनके बारे में अगर आप किसी भी जानकार से पूछेंगे तो एक कहानी जरूर पता चलेगी। जब नासा अपने सबसे महत्वकांक्षी स्पेश मिशन अपोलों को लांच कर रहा था। तब वशिष्ठ नारायण का दिमाग ही था जिसने इसे सफल बनाया था। अपोलो मिशन वह मिशन था जिसने पहली बार इंसान को धरती के अलावा किसी दूसरी जमीन यानी की चांद पर पहुंचाया था। कहा जाता है कि इसके लांच के समय कैल्कुलेशन में लगे 36 कम्प्यूटर अचानक बंद हो गए, बहुत कोशिश हुई लेकिन ऑन नहीं हुए तब वशिष्ठ नारायण ने जो कैल्कुलेशन अपने हिसाब से किया था वह सही साबित हुआ। जब कंप्यूटर ऑन हुए तो दोनों सॉल्यूशन बिल्कुल सेम थे, और नासा का यह मिशन भी कामयाब रहा।
मैथ को लेकर वशिष्ठ जी का इंट्रेस्ट बचपन से रहा। मैथ्य में इतने आगे थे कि पटना के सांइस कॉलेज के मैथ्स टीचर उनके रहते क्लास में घुसने से डरते थे। क्योंकि वे अक्सर टीचर को गलत पढ़ाने पर टोक देते थे। यह बात जब प्रिंसिपल तक गई तो वे पहले ऐसे छात्र बन गए जिसके लिए परीक्षा ही अलग से कंडक्ट की जाने लगी! पांच भाई— बहनों वाले गरीब परिवार में 2 अप्रैल 1942 को जन्में वशिष्ठ की प्रतिभा को गरीबी भी दबा नहीं सकी। नेतरहाट की परीक्षा में संयुक्त बिहार, यानि तब जब बिहार और झारखंड एक था वे टॉपर रहे।

प्रतिभा कभी छुपती नहीं, ऐसा ही हुआ उस समय पटना आए प्रोफेसर कैली के साथ कैली भी नारायण से प्रभावित हो गए और इसके बाद नारायण अमेरिका चले गए। वहां 1969 में उन्होंने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की और वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में भी पढ़ाया फिर नासा में अपना टाइलेंट दिखा, 1971 में भारत चले आए।
यहां पहले आईआईटी कानपुर, फिर आईआईटी बंबई और फिर आईएसआई कोलकाता में पढ़ाया। जिंदगी अच्छी चल रही थी तो घरवालों ने 1973 में शादी वंदना रानी सिंह से करा दी। वशिष्ठ के घरवाले कहते हैं यहीं से उनकी जिंदगी बेपटरी हो गई। जैसे उन्हें कुछ हो गया, दिन—दिन भर पढ़ना छोटी—छोटी बात पर गुस्सा होना। इस समय वे कुछ दवाइयां भी खाते थें। लेकिन इस बारे में किसी को कुछ नहीं बताया, उधर उनकी शादी भी टूट गई। घरवालों की माने तो कॉलेज में भी वे अपने सहयोगियों से परेशान थे। कईयों ने उनके रिसर्च पेपर चुराकर अपने नाम से छपवा लिए थे। परेशान वशिष्ठ को पहला दौरा 1974 पड़ा। जिसके बाद उन्हें रांची के कांके अस्पताल में भर्ती करा दिया गया।
गरीब परिवार और उस परिवार के इतने बड़े मैथमेटिशियन के लिए सरकार भी आगे नहीं आई तो इलाज नहीं हुआ। इस बीच वे कांके से कहीं चले गए बहुत खोज बीन हुई मगर उनका कुछ पता ही नही चला। चार साल बाद वशिष्ठ को सीवान में बहुत खराब हालत में देखा गया तो लोगों ने सरकार को खूब कोसा, तो ईलाज की व्यवस्था हुई लेकिन फिर सब भूल गए।
वशिष्ठ नारायण को सिज़ोफ्रेनिया था। यह एक मानसिक बीमारी है। लेकिन यह बिमारी भी उनका पढ़ना और किताबों संग उनके लगाव को कम नहीं कर सकी। कहते हैं कि जब वो अमेरिका से वापस आए थे तो एक बक्सा भर के सिर्फ किताब लाए थे। जिसे वे अंतिम समय तक पढ़ते रहे। वहीं बिहार में कई लोग यहां तक कहते हैं कि वे कागज पर कुछ लिखकर फेंक देते थे तो वो भी रिसर्च का विषय बन जाता था। बिहार और भारत के इस महान मैथमैटिशियन ने कभी मॉडर्न साइंस के फादर आइंस्टीन को चुनौती दी थी। Reproducing kernels and operators with a cyclic vector पर उनके काम ने दुनिया में भारत का नाम कर दिया। लेकिन जब पटना के पीएमसीएच में उनकी मौत हुई तो अस्पताल को इस नाम के महत्व तक का पता नहीं था। शायद इसलिए लापरवाह सिस्टम और सड़ चुकी व्यवस्था के पास उनके लिए एक एम्बुलेंस भी नहीं थी।