हमारे देश में कुछ लोगों की एक बड़ी ही अलग टेंडेंसी है कि, वो सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे। लेकिन हां नौकरी उन्हें सरकारी ही चाहिए, दरअसल, भारत में लोगों के लिए सरकारी नौकरी लगना किसी बड़े सपने की तरह होता है और अगर सरकारी नौकरी लग गई तो वो किसी लॉटरी लगने के जैसा ही होता है। और तो और सरकारी नौकरी जब आईएएस और आईपीएस की हो तो फिर क्या ही कहना।
सरकारी नौकरी के लिए हर साल कोशिश तो लाखों लोग करते हैं लेकिन चुनिंदा लोगों के हाथ ही लगती है सरकारी नौकरी। ऐसे में अगर हम आपको बताएं कि भारत में एक ऐसा गांव भी है जहां हर एक घर में एक आईएएस या फिर आईपीएस अफसर है। तो आप क्या कहेंगे और वो भी एक गांव में, जहां ना बहुत बड़े कोचिंग सेंटर होते हैं और ना ही पढ़ने वाले बच्चों के लिए सुविधाएं होती हैं। मगर इन सबके बावजूद भी उत्तर प्रदेश राज्य के जौनपुर जिले के एक गांव के हर घर में अफसर रहते है। इस गांव का नाम है माधोपट्टी। हालांकि, इस गांव को कोई माधोपट्टी नहीं कहता इस गांव को आसपास के गांव वाले ‘अफसरों वाला गांव’ कहते हैं।
‘अफसरों वाला गांव’ के नाम से पूरे जिले में जाना जाता है माधोपट्टी
ऐसा लगता है कि इस गांव में सिर्फ अफसर ही जन्म लेते हैं। इसलिए पूरे जिले में इसे अफ़सरों वाला गांव कहते हैं। इस गाँव में महज 75 घर हैं, लेकिन यहाँ के 47 से ज़्यादा आईएएस अधिकारी उत्तर प्रदेश समेत दूसरे राज्यों में नियुक्त हैं। गांव के लोग ऐसा बताते हैं कि ब्रिटिश हुकूमत में मुर्तजा हुसैन के कमिश्नर बनने के बाद गाँव के युवाओं को उनके जैसा बनने की इच्छा हुई। साल 1914 की बात है जब पहली बार इस गाँव के युवक मुस्तफा हुसैन जो कि जाने-माने शायर वामिक़ जौनपुरी के पिता थे उनका पीसीएस में सिलेक्शन हुआ।
इसके बाद 1952 में इन्दू प्रकाश सिंह का आईएएस की 13वीं रैंक में सिलेक्शन हुआ। इन्दू प्रकाश के सिलेक्शन के बाद गाँव के युवाओं में आईएएस-पीसीएस के लिए जैसे होड़ मच गई। इन्दू प्रकाश सिंह फ्रांस सहित कई देशों में भारत के राजदूत भी रहे। इंदू प्रकाश के बाद गाँव के ही चार सगे भाइयों ने आईएएस बनकर रिकॉर्ड कायम किया। फिर 1955 में विनय सिंह आगे चलकर बिहार के प्रमुख सचिव बने। तो वहीं साल 1964 में इनके दो सगे भाई छत्रपाल सिंह और अजय सिंह एक साथ आईएएस के लिए चुने गए। बस इसके बाद तो जैसे गांव के हर युवा को लगने लगा कि, उन्हें भी आईएएस और पीसीएस बनना है। फिर तो हर साल किसी ना किसी का सिलेक्शन होता ही गया। और ये आईएएस और पीसीएस आने वाली जेनरेशन के लिए एक एक्जाम्पल सेट करते चले गए।
अफसरों वाला गांव – पढ़ाई के मामले में पीछे नहीं है यहां की महिलाएं
वैसे इस गाँव की महिलाएँ भी पुरुषों से पीछे नहीं हैं। आशा सिंह 1980 में, ऊषा सिंह 1982 में, कुवंर चंद्रमौल सिंह 1983 में और उनकी पत्नी इन्दू सिंह 1983 में, अमिताभ 1994 में आईपीएएस बने तो उनकी पत्नी सरिता सिंह 1994 में आईपीएस चुनी गईं। इस गांव में साक्षरता की दर भी कहीं ज्यादा है। यहाँ हर घर में एक से ज्यादा लोग ग्रेजुएट हैं। पढ़ाई के मामले में महिलाएँ भी पीछे नहीं हैं। गाँव की औसतन लिटरेसी रेट 95% है, जबकि यूपी का औसतन लिटरेसी रेट 69.72% है
अब आप इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि ये गांव कितना आगे है और क्यों ना इस गांव को अफसरों का गांव कहा जाए। आप कुछ कहना चाहते हैं इस गांव या हमारी ख़बर के बारे में तो आप हमें कमेंट कर सकते हैं। अगर आपके पास आपकी या आपके पडोसी या आपके गांव या शहर की कुछ ऐसी ही अलग हटकर कोई कहानी हो तो आप हमे कमेंट बॉक्स में कमेंट करके भी बता सकते हैं।